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पर आक्रमण कर आत्मीय लोगों को अपने गुणों से प्रभावित कर लिया था। दोनों की लक्ष्मी अविभक्त | थी। वे दोनों परस्पर स्नेह के साथ राज्य का सुचारु संचालन करते थे।
इसी भरतक्षेत्र के हस्तिनापुर नगर में मधुक्रीड़ नाम का राजा था। वह प्रताप से बढ़ते हुए बलभद्र और नारायण को नहीं सह सका, इसलिए उस बलवान ने 'कर' स्वरूप अनेकों श्रेष्ठ रत्न मांगने के लिए दण्डगर्भ नाम का प्रधानमंत्री भेजा। सूर्य के समान तेजस्वी दोनों भाई मधुक्रीड़ के प्रधानमंत्री के शब्द सुनकर क्रुद्ध हो उठे। वे कहने लगे कि वह मूर्ख 'कर' (टेक्स) माँगता है सो यदि वह पास आया तो उसके लिए 'कर' (हाथ) अवश्य दिया जायेगा। उस प्रधानमंत्री ने वापिस जाकर राजा मधुक्रीड़ को समाचार सुनाया। राजा मधुक्रीड़ भी उनके दुर्वचन सुनकर कुपित हो गया और उनके साथ युद्ध करने के लिए बहुत बड़ी सेना लेकर चला । नारायण भी युद्ध करने उसके सामने आया, चिरकाल तक उसके साथ युद्ध किया और अन्त में उसी के चलाये हुए चक्र से शीघ्र ही उसका शिरच्छेद कर दिया। मधुक्रीड मरण को प्राप्त कर छठवें नरक गया।
सारांश यह है कि सुदर्शन बलभद्र, पहले वीतशोक नगर में नरवृषभ राजा थे, फिर चिरकाल तक घोर तपश्चरण कर सहस्रार स्वर्ग में देव हुए, फिर वहाँ से चयकर खगपुर नगर में शत्रुओं का नाश करनेवाला बलभद्र हुआ और फिर क्षमामूर्ति निर्ग्रन्थ साधक होकर कर्मरहित सिद्धपद को प्राप्त किया।
पुरुषसिंह नारायण पहले तीसरे पूर्वभव में प्रसिद्ध राजगृह नगर में सुमित्र नाम का राजा था, फिर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ, वहाँ से च्युत होकर खगपुर नगर में पुरुषसिंह नाम का नारायण हुआ और उसके पश्चात् | महादुःखदायी छठवें नरक में जा गिरा।
मधुक्रीड प्रतिनारायण अनेक भव पूर्व मदोन्मत्त हाथियों को वश करनेवाला राजसिंह नाम का राजा था, फिर मार्ग भ्रष्ट होकर चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा, तदनन्तर धर्ममार्ग का अवलम्बन कर हस्तिनापुर नगर में मधुक्रीड नामक प्रतिनारायण हुआ। तत्पश्चात् मरण कर छठवें नरक में गया।
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