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कुमार काल के साढ़े बारह लाख पूर्व बीतने पर पिता इन्हें राज्य सौंपकर वनवासी दिगम्बर मुनि हो | गये। प्रभु सूर्य के समान तेजस्वी चन्द्र के समान कान्तियुक्त, इन्द्र से बढ़कर वैभव और शान्ति के सागर थे । समस्त राजा इन्हें मस्तक झुकाते थे । इन्द्र भी इनके चरणों को पूजता था । मोक्षलक्ष्मी जिसकी प्रतीक्षा में पलक पांवड़े बिछाये बैठी हो, उससे यदि राज्य लक्ष्मी अनुराग करे तो इसमें आश्चर्य ही क्या ? उनके कभी नष्ट नहीं होनेवाला क्षायिक सम्यग्दर्शन था । वे कुमार अवस्था में ही धीर, वीर, गंभीर और उद्धत थे। संयमी अवस्था में ही धीर और प्रशान्त हो गये तथा अन्तिम अवस्था में धीर और उदात्त अवस्था को ष प्राप्त हुए थे। उनकी कीर्ति समस्त पृथ्वीतल में तो व्याप्त थी ही, स्वर्गलोक के इन्द्रादि और देव भी उनकी | स्तुति करते थकते नहीं थे । वे उत्पन्न होने से पूर्व ही सर्वगुण सम्पन्न थे । उनके रत्नत्रय के संस्कार भी पूर्वभव से आये थे, अन्य गुणों की तो बात ही क्या करें ?
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इसप्रकार संसार के श्रेष्ठतम भोगों का उपभोग करनेवाले महाराजा अभिनन्दननाथ केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय होने के लिए उदयाचल के समान थे ।
जब उनके राज्यकाल में साढ़े छत्तीस लाख पूर्व बीत गये और आयु के आठ अंग शेष रहे, तब उन्हें एक दिन आकाश में मेघों की शोभा को देखते-देखते मेघों की माला में बना हुआ सुन्दर महल क्षणभर | में विघट गया तो उसकी क्षणभंगुरता का विचार करते हुए उन्हें वैराग्य हो गया ।
वे सोचने लगे - “इस संसार में रहते हुए ये तृष्णाकारक विनाशीक भोग मुझे अवश्य ही अध:पतन | के कारण बनेंगे। जो टूटनेवाली शाखा पर बैठेगा, क्या वह उस टूटती हुई शाखा के साथ नीचे नहीं गिरेगा ? यद्यपि मैंने इस शरीर के सभी मनोरथों को समस्त इष्ट पदार्थों से पूर्ण किया तो भी यह निश्चित ही है कि | वेश्या के समान यह देह मुझे छोड़ देगी ।
इसतरह विचार करके वे शरीर से विरक्त हो गये । उन्होंने यह भी सोचा " आयु कर्म के रहते हुए तो | पुन: पुन: मरण होता ही है। यदि हमें मरण इष्ट नहीं है तो मृत्यु के कारणभूत इस आयुकर्म से ही मुक्त
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