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(३५|| के गृह में सिद्धार्थ नामक पट्टरानी के गर्भ में आने वाला था, उसके छह माह पूर्व से ही जन्म पर्यन्त - १५
| माह तक कुबेर ने इन्द्र की आज्ञा से रत्नवृष्टि की। रानी ने १६ स्वप्न देखे। प्रात: सिद्धार्थ पट्टरानी ने पति | से स्वप्नों का फल पूछा - राजा ने बताया तुम्हारे मुख में प्रवेश करता हुआ जो हाथी दिखा, उसका फल
यह है कि तुम्हारे गर्भ में तीर्थंकर का जीव आनेवाला है। गर्भ में आने के नौ माह बाद माघमास की | शुक्लपक्ष की द्वादशी के दिन अदिति योग में तीर्थंकर पुत्र उत्पन्न हुआ।
इधर तीर्थंकर पुत्र उत्पन्न हुआ उधर इन्द्र का आसन कम्पायमान हो गया। उससे उस इन्द्र ने अवधिज्ञान के द्वारा जान लिया कि त्रिलोकीनाथ का जन्म हुआ है। इन्द्र ने अपनी शची के द्वारा उस दिव्य मानव को | प्राप्त किया और देवगणों के साथ उसे लेकर सुमेरु पर्वत पर पहुँचा वहाँ सूर्यप्रभा को धारण करनेवाले बालक अभिनन्दन को दिव्य सिंहासन पर विराजमान कर क्षीरसागर से पंक्तिबद्ध देवों द्वारा हाथों-हाथ लाते हुए जल के एक हजार आठ कलशों से जन्माभिषेक किया।
उस समय इन्द्र ने भक्तिवश जिनेन्द्रप्रभु के दर्शन से तृप्त न होने पर एक हजार आठ नेत्रों से प्रभु के दर्शन किए भक्तिभावना से आत्मविभोर होकर ताण्डव नृत्य किया और नाना अभिनय प्रदर्शित किए। उससमय उसकी भक्तिभावना चरमसीमा को प्राप्त हो गई थी। वह इन्द्र साथ ही अन्य अनेक धीरोदात्त नटों को भी नृत्य करा रहा था।
जन्माभिषेक से वापिस लौटकर इन्द्र अयोध्यानगरी में आया तथा माता की गोद के मायामयी बालक को हटाकर पिता के सामने असली तीर्थंकर पुत्र को माता की गोद में रखकर चला गया।
ज्ञातव्य है कि भगवान अभिनन्दननाथ तीर्थंकर का अन्तरायकाल संभवनाथ के बाद दश लाख करोड़ वर्ष का था।
अभिनन्दन स्वामी जन्म से ही अवधिज्ञान से सुशोभित थे। पचास लाख पूर्व उनकी आयु थी। वे बाल चन्द्रमा के समान कान्ति से युक्त थे। उनकी कान्ति सुवर्ण के समान दैदीप्यमान शोभा को प्राप्त हो रही थी।
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