________________
३५९|| में स्थित प्रभास नामक देव को वश में करते हैं। तत्पश्चात् सिन्धुनदी के पश्चिम तटवर्ती म्लेच्छ राजाओं
|| को जीतते हैं। पुन: पूर्व दिशा की ओर दक्षिण श्रेणी के ५० विद्याधर राजाओं को वश में करते हैं। | फिर गंगा तट के पूर्ववर्ती म्लेच्छ राजाओं का तथा एक सौ दश विद्याधर राजाओं को जीतकर तीन खण्ड
का आधिपत्य प्राप्त करते हैं। | १. अपने पूर्वभव में कोई जीव भेदाभेद रत्नत्रय की आराधना करके विशिष्ट पुण्य का बंध (संचय) करता है। पश्चात् अज्ञान भाव से निदान बंध करता है। तदनन्तर स्वर्ग में जाकर पुन: मनुष्य होकर तीन खण्ड का अधिपति अधचक्री (नारायण/प्रतिनारायण) बनता है।
२. सभी प्रतिनारायण युद्ध में नारायणों के हाथों से निज चक्रों के द्वारा मरण कर नरक जाते हैं। ३. नारायण और प्रतिनारायण का परस्पर में कभी मिलाप नहीं होता। ४. ये निकट भव्य होने के कारण कुछ ही भवों में मोक्ष प्राप्त करते हैं।
५. नारायण जिस कोटिशिला को ऊपर उठाते हैं। वह आठ योजन लम्बी, चौड़ी और एक योजन ऊँची होती है। अनेकों मुनिगण इस शिला से निर्वाण को प्राप्त हुए हैं। अत: यह शिला सिद्धशिला भी कहलाती है।
१. त्रिपृष्ठ नारायण ने वह शिला मस्तक के ऊपर तक उठाई थी। २. द्विपृष्ठ ने मस्तक तक, ३. स्वयंभू ने कंठ तक, ४. पुरुषोत्तम ने वक्षस्थल तक, ५. पुरुषसिंह ने हृदय तक, ६. पुंडरीक ने कमर तक, ७. दत्त ने जंघा तक, ८. लक्ष्मण ने घुटनों तक और ९. कृष्ण ने वह शिला चार अंगुल ऊँचे तक उठाई थी।
इस चौबीसी में जो नारायण और प्रतिनारायण हुए हैं उनके नाम इसप्रकार हैं - त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुण्डरीक, दत्त, लक्ष्मण और कृष्ण ये नौ नारायण हुए हैं।
अश्वग्रीव, तारक, मधु, मधुसूदन, मधुक्रीड, निःशुम्भ, वलीन्द्र, रावण और जरासंघ - ये ९ प्रतिनारायण हैं।
REFEN FEV
छ FNFFFFFFFFF
२५