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गया। वह उसके साथ अकेला ही जाने के लिए तैयार हो गया। उसे मंत्रियों ने बहुत रोका और समझाया; किन्तु उसने किसी की बात नहीं मानी और उस मायावी परिव्राजक के साथ एकाकी ही चल दिया। परिव्राजक के बीच समुद्र में ले जाकर उसे मारने के लिए अनेक तरह का कष्ट देना शुरू किया। अबतक चक्रवर्ती को सारा रहस्य ज्ञात हो गया । चक्रवर्ती अपने को कष्टों से घिरा हुआ देखकर पंच नमस्कार मंत्र की आराधना करने लगा। उसके प्रभाव से कपटी संन्यासी की सारी शक्ति रुद्ध हो गई। जिससे देव उसका | कुछ नहीं बिगाड़ सका। वह देव समझ गया कि 'जब तक यह णमोकार मंत्र पढ़ता रहेगा, तबतक इसका
कुछ अनिष्ट नहीं हो सकता। अतः प्रकट होकर वह बोला - अरे दुरात्मन्! तू जानता है, मैं वही रसोइया || हूँ, जिसे तून उबलता हुआ दूध डालकर मार डाला था। वही आग मेरे हृदय में आज भी जल रही है। मैं तेरी हत्या करूँगा। तेरी रक्षा का केवल एक ही उपाय है। यदि तू भूमि पर णमोकार मंत्र लिखकर पैर से उसे मिटा दे तो तेरा जीवन बच सकता है, अन्यथा नहीं। चक्रवर्ती अपने प्राणों के मोह से विवेक खो बैठा। उसकी श्रद्धा डगमगा गई। उसने देव के कथनानुसार भूमि पर णमोकार मंत्र लिखा और उसे पैर से मिटा दिया। ऐसा करते ही उस देव ने उसे मारकर समुद्र में डुबो दिया। ब्रह्मदत्त मरकर सप्तम नरक में गया। .
इस लोक में वास्तव में आत्मा स्वभाव से पौद्गलिक कर्म का निमित्तभूत न होने पर भी, अनादि अज्ञान के कारण पौद्गलिक कर्म को निमित्तरूप होते हए अज्ञानभाव में परिणमता होने से निमित्तभूत होने पर पौद्गलिक कर्म उत्पन्न होता है। इसलिए पौद्गलिक कर्म आत्मा ने किया - ऐसा निर्विकल्प विज्ञानघन से भ्रष्ट विकल्प परायण अज्ञानियों का विकल्प है। वह विकल्प उपचार ही है, परमार्थ नहीं।
- सुखी जीवन, पृष्ठ-१४०