SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ BREE F IFE 19 की प्रभाकरी नाम की देवी से जो कान्तिमान पुत्र हुआ, वह सर्वलक्षणों से युक्त था, जयसेन उसका नाम था, तीन हजार वर्ष की उसकी आयु थी, साठ हाथ की ऊँचाई थी, तपाये हुए स्वर्ण के समान उसकी कान्ति | थी, वह चौदह रत्नों का स्वामी था और दशप्रकार के भोग भोगता हुआ सुख से समय बिताता था। किसी एक दिन वह ऊँचे राजभवन की छत पर लेटा हुआ दिशाओं का अवलोकन कर रहा था कि इतने में ही उसे उल्कापात दिखाई दिया। उसे देखते ही विरक्त होता हुआ वह इसप्रकार विचार करने लगा कि "देखो यह प्रकाशमान वस्तु अभी तो ऊपर थी और फिर शीघ्र ही अपनी वह पर्याय को छोड़कर कान्ति रहित होती हुई नीचे चली गई। 'मेरा तेज भी बहुत ऊँचा है तथा बलवान है' इसतरह के मद को धारण करता हुआ | जो मूढ़ प्राणी अपनी आत्मा के लिए हितकारी परलोक संबंधी कार्य नहीं करता है और उसके विपरीत विषयों में आसक्त रहता है वह प्रमादी मनुष्य भी इसी उल्का की तरह विनाश को प्राप्त होता है।" ऐसा विचार कर धर्मबुद्धि के धारक चक्रवर्ती जयसेन ने समस्त साम्राज्य को छोड़ने का निश्चय कर लिया। वह अपने बड़े पुत्र के लिए राज्य देने लगा, परन्तु उसने तप धारण करने की इच्छा से राज्य लेने से इन्कार कर दिया, तब उसने अपने छोटे पुत्र के लिए राज्य दिया और अनेक राजाओं के साथ वरदत्त नाम के केवली भगवान ने संयम धारण कर लिया। वह कुछ ही समय में अष्ट ऋद्धियों से विभूषित हो गया। चारणऋद्धि भी उसे प्राप्त हो गई। अन्त में वह सम्मेदशिखर पर प्रायोपगमन संन्यास धारण कर आत्म-आराधना करते हुए घातिया कर्म के क्षय से केवलज्ञान को प्राप्त हुए। ज्ञातव्य है कि “जयसेन का जीव पहले भव में वसुन्धर नाम का राजा था, फिर तपश्चरण कर सोलह सागर की आयुवाला देव हुआ, वहाँ से चय कर जयसेन नाम का चक्रवर्ती हुआ । चक्रवर्तियों के सामान्य स्वरूप में एवं चक्रवर्तियों के वैभव, सुख और यश संबंधी विषयों से पाठक सुपरिचित हो चुके हैं तथा अधिकांश चक्रवर्ती अपनी उस पुण्य से प्राप्त सुख-सुविधाओं को क्षणिक नाशवान एवं आकुलता की जननी जानकर विरक्त होकर आत्मसाधना में प्रवृत्त हुए हैं। जयसेन के संबंध में भी वही सबकुछ हुआ है। 5 NFP 4
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy