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॥ हरिषेण वहाँ सुख से रहने लगे। किसी एक दिन निद्रावश हरिषेण को विद्याधरी उठाकर विजयार्द्ध पर्वत श | पर ले जाने लगी। निद्राभंग होते ही अपने को हारा हुआ देखकर कोप से हरिषेण ने कहा रे पापिनी! मेरे ला | को कहाँ ले जा रही है ?' तब विद्याधरी ने मिष्ट वाणी से कहा कि 'हे नाथ! मैं तुम्हारी हितकारिणी हूँ।
विद्याधर लोक में शक्रधनु नरेन्द्र की दुलारी जयचंद्रा आपमें आसक्त है । मैं आपको वहाँ ले जा रही हूँ जहाँ | आपको बहुत भारी लाभ है।' वह विजयार्द्ध पर्वत पर पहुँच गये। राजा शक्रधनु ने अनेक परिजन पुरजनों
के साथ हरिषेण से जयचंद्रा का पाणिग्रहण करा दिया। विवाहोत्सव में आगत जयचंद्रा के मामा का पुत्र गंगाधर कन्या की अप्राप्ति से युद्ध करने लगा किन्तु हरिषेण के पराक्रम के आगे हारकर भाग गया। युद्ध में विजय के साथ-साथ अकस्मात् ही चक्ररत्न प्रगट हो गया।
पुण्यवान हरिषेण चक्ररत्न को लेकर विजयार्द्ध की दोनों श्रेणियों को जीतकर तथा द्वादश योजन प्रमाण कटक को लेकर शतमन्यु तापसी के आश्रम में आये। वहाँ विधिपूर्वक मदनावली के साथ विवाह किया तथा बड़ी विभूति के साथ कम्पिला नगर आये । बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं के साथ आकर उन्होंने माता वप्रा को नमस्कार किया। ऐसे प्रतापी पुत्र को देखकर माता के हर्ष का पार नहीं रहा। युगल नेत्र आन्दाश्रुओं से भर आये । षट् खंडाधिपति सम्राट ने स्वर्णमयी रथ का निर्माण कराके नगर में जिनेन्द्र भगवान की रथ यात्रा कराकर अपनी माता का मनोरथ पूर्ण किया। इस कार्य को करने से मुनि और श्रावकों को परम हर्ष हुआ तथा बहुत से लोगों ने जिनधर्म धारण किया। अनन्तर अपने शुभ संकल्प के अनुसार दशवें चक्रवर्ती हरिषेण ने नदी के किनारे, पर्वत-पर्वत पर, वनों-वनों में और स्थान-स्थान पर जिनमन्दिरों का निर्माण कराया तथा बहुत काल तक चक्रवर्ती की सम्पत्ति का उपभोग किया।
किसी समय एक कार्तिक मास के नन्दीश्वर पर्व संबंधी आठ दिनों में उस चक्रवर्ती ने महापूजा की और अन्तिम दिन उपवास का नियम लेकर वह महल की छत पर सभा के मध्य धर्मचर्चा करता हुआ बैठा |
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