SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ || से युक्त था, किन्तु हरिषेण को माता की स्मृति आती रही। वन में विहार करते हुए वह शतमन्यु नाम के | तापस-आश्रम में पहुँचा । उससमय चंपा नगरी में जनमेजय राजा राज्य करता था। उसका कालकल्प राजा के साथ युद्ध हुआ, युद्ध में जनमेजय हार गया। उसने पहले स ही राजमहल से लेकर शत्मन्यु ऋषि के आश्रम तक सुरंग बनायी थी। आपत्ति काल देखकर जनमेजय की माता नागमती अपनी पुत्री मदनावली को लेकर सुरंग मार्ग द्वारा उस तापसी आश्रम में आश्रय के लिए आ गई। हरिषेण जब आश्रम में आये तब मदनावली को देखकर मदन बाण से बेधित हुए, मदनावली की भी वही दशा हुई। दोनों को विकारयुक्त देख नागमती ने कहा "हे पुत्री ! सुनो महामुनि के ये वचन हैं कि मदनावली चक्रवर्ती की स्त्री रत्न होगी। यह उपस्थित युवक महालक्षण युक्त होनहार चक्रवर्ती जैसा प्रतीत हो रहा है। इतने में ही आश्रम के तापसियों ने आश्रम की अपकीर्ति फैलने के भय से हरिषेण को निकाल दिया। हरिषेण ने तापसी को अवध्य जान कुछ नहीं किया। हरिषेण आश्रम से निकल तो गये किन्तु मदनावली को एवं खेदखिन्न हृदया अपनी माता को न | भूल सके। उन्होंने चित्त में यह शुभ संकल्प किया कि 'मैं इस स्त्री रत्न को वरूँ एवं माता का संताप दूर करूँ तो नदियों के तट पर, वनों में, ग्राम, नगर, खेट, कर्वट, मटंब आदि में और पर्वतों पर जिनेन्द्र भगवान के चैत्यालय का निर्माण कराऊँगा।' इसप्रकार चिंतवन करते हुए वे सिंधुनद नामक नगर में पहुँचे । उस वक्त एक राजहस्ती मद से युक्त हो स्त्री बालक आदि को कौंधता हुआ दौड़ रहा था । भय से कंपित स्त्री समूह को देखकर परम दयालु हरिषेण स्त्रियों को अपने पीछे करके हाथी के सम्मुख आये और मन में विचारा कि वे तापसी दीन थे अतः युद्ध नहीं किया, परन्तु यह दुष्ट हस्ती बालक आदि का घात करे और मैं सहायता न करूँ यह क्षत्रिय धर्म नहीं है। इसतरह निर्भीक भाव से हरिषेण उछलकर हाथी के कुम्भस्थल पर चढ़ गये और हाथी को वश में कर सभी की रक्षा की। राजा महल की छत से दृश्य को देख रहा था सो आश्चर्य युक्त हो बहुत सम्मान के साथ हरिषेण को लाने के लिए राजपुरुषों को आज्ञा दी। अनन्तर अपनी सौ कन्याओं के साथ हरिषेण का विवाह कर दिया। 5804
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy