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________________ REE FOR "FF 0 १०. हरिषेण चक्रवर्ती श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में हरिषेण नाम के चक्रवर्ती हुए। वह अपने से पूर्व तीसरे भव में | अनन्तनाथ तीर्थंकर के तीर्थ में एक बड़ा भारी राजा था। वह किसी कारण से उत्कृष्ट तप कर सनतकुमार स्वर्ग के सुविशाल नामक विमान में छह सागर की आयु वाला उत्तम देव हुआ। तदनन्तर उस देव की आयु पूर्ण होने को हुई तो राजा सिंहध्वज की प्रमुख रानी जो कि अनेक गुण एवं कलाओं के साथ परम धार्मिक भी थी। यथा समय उस वप्रा ने उस देव को चौंसठ शुभ लक्षण युक्त पुत्र के रूप में जन्म दिया। मातापिता ने उसका नाम हरिषेण रखा । दश हजार वर्ष की उनकी आयु थी, दैदीप्यमान सुवर्ण के समान उसकी | कान्ति थी, चौबीस धनुष ऊँचा शरीर था। युवा होने पर सिंहध्वज ने महालक्ष्मी नाम की राजकन्या के साथ उसका विवाह किया। यद्यपि महालक्ष्मी जिनधर्म से द्वेष रखती थी। तथापि राजा हरिषेण का मन महालक्ष्मी में अधिक आसक्त हुआ। यथा समय नंदीश्वर पर्व आया, हरिषेण की माँ वप्रा ने पूर्ववत् रथोत्सव के लिए राजकर्मचारियों को आज्ञा दी। रथोत्सव की जोर-शोर से तैयारियाँ होने लगीं। उसको देखकर महालक्ष्मी ने अपने सौभाग्य के मद में आकर कहा कि मेरा ब्रह्म रथ नगर में पहले निकाला जायेगा। यह वार्ता सुनकर वप्रा खेद खिन्न हो गई, मानो वज्रपात ही हुआ हो, तब उसने दृढ़ निश्चय करके यह प्रतिज्ञा कर ली कि हमारे वीतराग प्रभु का रथ निकलेगा तो षट्रसयुक्त भोजन करेंगे अन्यथा षट्रसयुक्त भोजन त्याग है। इसप्रकार से प्रतिज्ञा लेकर संपूर्ण कार्य छोड़कर वह उदास होकर बैठ गई। हरिषेण ने माता को उदासचित्त देखकर पूछा कि हे मात! अब तक तुमको मैंने स्वप्न में भी उदास नहीं देखा है - ऐसा अमंगल रुदन किसलिए? तब माता ने सब वृतांत कहा । उसको सुनकर हरिषेण मन में विचार करने लगा कि इस समय मेरा क्या कर्तव्य है ? माता को दुःखी देखने में समर्थ नहीं हूँ। इसप्रकार सोचकर महल से निकलकर वन की ओर चल दिया। भ्रमण करता हुआ वह एक सघन वन में पहुँचा, वन में उसके सुंदर रूप को देखकर निर्दयी पशु भी शांत हो गये, वन अत्यन्त रमणीक, फलों से परिपूर्ण, निर्मल सरोवर || २४
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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