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९. पद्म चक्रवर्ती श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र के तीर्थ में पद्म नाम का चक्रवर्ती हुआ है, जो पूर्व में तीसरे भव में प्रजापाल नाम का राजा था। राजाओं में जितने प्राकृतिक गुण कहे गये हैं, उसमें वे सब थे। अत: समस्त प्रजा सुख से रहती थी। समस्त शत्रुओं को जीत लिया था, समस्त द्वन्द शान्त कर दिये थे। किसी एक समय उल्कापात देखने से उसे वैराग्य हो गया। वह विचार करने लगा कि "मैंने मूखर्तावश इन भोगों को स्थायी समझकर चिरकाल तक इनका उपभोग किया है। ऐसा विचार कर उसने पुत्र के लिए राज्य सौंप दिया और स्वयं शिवगुप्त जिनेश्वर के पास जाकर संयम धारण कर लिया। उसने अशुभ कर्मों का आस्रव रोक दिया था
और क्रम-क्रम से आयु का अन्त पाकर अपने परिणामों को समाधियुक्त कर अच्युत स्वर्ग में इन्द्र हुआ। वहाँ बाईस सागर की उसकी आयु थी। वह अच्युतेन्द्र आयु के अन्त में वहाँ से च्युत हुआ और फिर वाराणसी नाम की नगरी में इक्ष्वाकुवंशीय राजा पद्मनाभ का पद्म नाम का पुत्र हुआ था। तीस हजार वर्ष की उसकी आयु थी। पुण्य के उदय से उसने क्रमपूर्वक अपने पराक्रम के द्वारा अर्जित किया हुआ चक्रवर्तीपना प्राप्त किया था तथा चिरकाल तक निराबाध दश प्रकार के भोगों का उपभोग किया था। उसके पृथिवीसुन्दरी आदि आठ पुत्रियाँ थीं। जिन्हें उसने बड़ी प्रसन्नता के साथ सुकेतु नामक विद्याधर के पुत्रों के लिए प्रदान की थीं।
एक दिन आकाश में एक सुन्दर बादल दिखाई दिया जो चक्रवर्ती को हर्ष उत्पन्न कर शीघ्र ही नष्ट हो गया। उसे देखकर चक्रवर्ती विचार करने लगा कि इस बादल का यद्यपि कोई शत्रु नहीं है तो भी यह नष्ट हो गया, फिर जिनके सभी शत्रु हैं ऐसी सम्पत्तियों में विवेकी मनुष्य को स्थिर रहने की भावना कैसे हो सकती है ?” ऐसा विचार कर चक्रवर्ती संयम धारण करने में तत्पर हुआ ही था कि उसी समय उसके कुल का वृद्ध मंत्री बोला - 'यह तुम्हारा राज्य प्राप्ति का समय है, अभी तुम छोटे हो, नवयौवन के धारक हो, अत: भोगों का अनुभव करो, तप में व्यर्थ ही कष्ट उठाना पड़ता है, इसका कुछ भी फल नहीं होता; क्योंकि
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