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________________ EFFFFFF Tv ३४७ मंत्रियों ने उसे रोकना भी चाहा, किन्तु वह नहीं माना और उसके साथ जहाज द्वारा समुद्र में गया। उसीसमय | | उसके महल से वे सब चक्ररत्न आदि चले गये, जिनकी एक-एक हजार यक्षदेव रक्षा करते थे। यह जानकर छद्मवेषी देव अपने शत्रु सुभौम राजा को गहरे समुद्र में ले गया। वहाँ उस दुष्ट ने पूर्वभव का अपना रसोइया का रूप प्रकट कर दिखाया और अनेक दुवर्चन कहकर पूर्वबद्ध बैर के संस्कार से उसे भयंकर पीड़ा देकर मार डाला। सुभौम चक्रवर्ती भी अन्तिम समय रौद्र ध्यान से मरकर सातवें नरक में उत्पन्न हुआ। सुभौम के पूर्वभव के परिचय में कहा है कि सुभौम चक्रवती का जीव पहले तो भूपाल नामक | राजा हुआ फिर तपश्चरण कर महाशुक्र स्वर्ग में सोलह सागर की आयु वाला देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर परशुराम को मारनेवाला सुभौम नाम का चक्रवर्ती हुआ और अन्त में मरण को प्राप्त कर नरक में उत्पन्न हुआ। जो चक्रवर्ती विरागी होकर चक्रवर्ती पद का त्याग कर मुनि नही होता, वह चक्रवर्ती पद में होने के कारण नियम से नरक ही जाता है; क्योंकि चक्रवर्ती पद में रहते हुए उसे देश या राष्ट्र के संचालन में उसकी व्यवस्था में बहुत आरंभजनित पापों की प्रवृत्ति होती है, बहुत परिग्रह तो है ही तथा आगम का यह वचन है कि "बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह नरक आयु बंध का कारण है।" इससे पाठकों को यह शिक्षा मिलती है कि हम यथासंभव अपने जीवन में ही आरंभ और परिग्रह को सीमित करें तथा उपलब्ध परिग्रह में भी मूर्छा (ममत्व) कम करें। ताकि दुर्गति न हो। वैरभाव तो कभी किसी के साथ लम्बाना ही नहीं चाहिए। बैर को क्रोध का आचार और मुरब्बा कहा गया है। अत: तत्त्वज्ञान के बल से क्रोध को ही शमित कर देना चाहिए, उसे बैर नहीं बनने दें; क्योंकि वैर अनेक भवों तक पीछा नहीं छोड़ता। (२४ FFF P8 / 4
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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