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८. सुभौम चक्रवर्ती श्री अरनाथ तीर्थंकर के बाद दो सौ करोड़ बत्तीस वर्ष व्यतीत हो जाने पर सुभौम चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ था। यह सुभौम समस्त शत्रुओं को नष्ट करनेवाला था और चक्रवर्तियों में आठवाँ चक्रवर्ती था। उसकी साठ हजार वर्ष की आयु थी, सुवर्ण के समान उसकी कान्ति थी, वह लक्ष्मीवान था, इक्ष्वाकुवंश का शिरोमणि था, अत्यन्त स्पष्ट दिखनेवाले चक्र आदि शुभ लक्षणों से सुभोभित था । चक्रवर्ती पद के योग्य सम्पूर्ण वैभव उसके पास था।
महाराज सुभौम का एक अमृत रसायन नाम का रसोइया था। जिसने एक दिन बड़ी प्रसन्नता से उसके | लिए स्वादिष्ट विशेषप्रकार की कढ़ी परोसी। सुभौम ने उस कढ़ी के गुणों का विचार तो नहीं किया, सिर्फ कढ़ी नाम सुनने मात्र से कुपित हो गया। रसोईया के शत्रु ने मौका पाकर सुभौम को उस रसोइया के विरुद्ध भड़का दिया, जिससे क्रोधित होकर उस सुभौम ने उस रसोइया को इतना अधिक मारा कि वह रसोइया अधमरा हो गया। तब उस रसोइया ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर यह निदान किया कि 'मैं इस राजा सुभौम को अवश्य मारूँगा।' वह मरकर थोड़े से पुण्य के कारण ज्योतिर्लोक में विभंगावधिज्ञान को धारण करनेवाला देव हुआ । पूर्व बैर का स्मरण कर वह क्रोधवश राजा को मारने की सोचने लगा। उसने देखा कि वह राजा जिह्वा लोलुपी है; अत: एक व्यापारी का वेष रख मीठे-मीठे फल देकर प्रतिदिन राजा की सेवा करने लगा।
एक दिन उस देव ने कहा कि “महाराज! वे फल तो समाप्त हो गये । और वे फल यहाँ लाये नहीं जा सकते। पहले तो मैंने उस वन की स्वामिनी देवी की आराधना कर कुछ फल प्राप्त कर लिये थे। यदि आप उन्हें अधिक पसन्द करते हैं तो आपको मेरे साथ वहाँ स्वयं चलना होगा तभी इच्छानुसार उन फलों को प्राप्त कर सकेंगे।"
राजा ने उसके मायापूर्ण मधुर वचनों पर विश्वास कर उसके साथ जाना स्वीकृत कर लिया। यद्यपि २४
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