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३४४ || धर्मचक्र के प्रवर्तक तीर्थंकर शान्ति बने । अन्त में वे कर्मचक्र का नाश कर सिद्धचक्र में सम्मिलित हो गये । उन्हें २५ हजार वर्ष तक साधारण राज्यशासन करने के बाद चक्रवर्तित्व की संसूचक चौदह रत्न और | नवनिधियाँ आदि सभी चक्रवर्ती का वह वैभव प्राप्त हुआ था। जिसका विशेष विवरण चक्रवर्ती के सामान्य स्वरूप में विस्तार से दिया ही गया है।
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चक्रवर्तित्व के पद का सुखोपभोग करते हुए भी उन्हें सच्ची शान्ति व सुख नहीं मिला । अत: उन्होंने पच्चीस हजार वर्ष तक चक्रवर्तित्व का संचालन करते हुए एक दिन उन्हें दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखने के निमित्त से वैराग्य हो गया और वे सातिशय पुण्य से प्राप्त उस चक्रवर्तित्व का त्याग कर स्वयं दीक्षित हो गये और तीर्थंकर प्रकृति के फलानुसार उनकी सब प्रक्रियायें पूर्ण हुईं और कर्मचक्र का अभाव कर सिद्धचक्र में सम्मिलित हो गये ।
६. कुन्थुनाथ चक्रवर्ती
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सत्रहवें तीर्थंकर कुन्थुनाथ अपने तीसरे पूर्वभव में राजा सिंहरथ थे। फिर विशिष्ट तपश्चरण कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुए। वहाँ से चयकर उन्होंने कामदेव, चक्रवर्ती और तीर्थंकर जैसे महान पदों को प्राप्त किया । तेईस हजार सात सौ पचास वर्ष कुमारकाल के बीत जाने पर उन्हें राज्य प्राप्त हुआ था तथा इतना ही न्धु | समय बीत जाने पर उन्हें अपनी ही जन्मतिथि के दिन चक्रवर्ती की लक्ष्मी प्राप्त हुई थी। वे नवनिधि और चौदह रत्नों से सम्पन्न हुए। चक्ररत्न के प्रभाव से उन्होंने छहों खण्डों पर विजय प्राप्त कर ली थी । बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं को अपना आज्ञानुवर्ती बनाते हुए इन्होंने सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में अपना अखण्ड | साम्राज्य स्थापित किया। जितना समय मण्डलेश्वर रहकर इन्होंने व्यतीत किया, उतना ही समय चक्रवर्ती पद पाकर व्यतीत किया । तदनन्तर किसी एक दिन पूर्व भव का स्मरण होने से जिन्हें आत्मज्ञान उत्पन्न हो | गया है ऐसे चक्रवर्ती सम्राट कुन्थुनाथ राज्य भोगों से विरक्त हो गये । उसीसमय देवों द्वारा लाई गई विजया नाम की पालकी पर आरूढ़ होकर वे भगवान सहेतुक वन में गये और वैशाख शुक्ला प्रतिपदा की तिथि | में वेला का नियम लेकर सायंकाल के समय उन्होंने एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली ।
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