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था कि उससे शरीर में अनेक भयंकर रोग उत्पन्न हो गये। यहाँ तक कि उनके शरीर में कुष्ठ हो गया। शरीर श || से दुर्गन्ध आने लगी। किन्तु मुनिराज का ध्यान एक क्षण के लिए कभी शरीर की ओर नहीं गया। उन्हें
औषध ऋद्धि प्राप्त थी, किन्तु उन्होंने कभी रोग का प्रतीकार नहीं किया।
एक दिन पुनः इन्द्र सौधर्म सभा में धर्मप्रेमवश सनतकुमार मुनिराज की प्रशंसा करते हुए कहने लगे - || "धन्य हैं सनतकुमार मुनि, जिन्होंने षट्खण्ड पृथ्वी का साम्राज्य तृण के समान असार जानकर त्याग दिया | और तप का आराधन करते हुए पाँच प्रकार के चारित्र का दृढ़तापूर्वक पालन कर रहे हैं।"
इन्द्र द्वारा यह प्रशंसा सुनकर मदनकेतु नामक एक देव सनतकुमार मुनिराज की परीक्षा लेने वैद्य का वेष धारण करके उस स्थान पर पहुँचा जहाँ मुनिराज तपस्या कर रहे थे। वहाँ आकर वह जोर-जोर से कहने लगा - "मैं प्रसिद्ध वैद्य हूँ, मृत्युंजय मेरा नाम है। प्रत्येक रोग की औषधि मेरे पास है।"
मुनिराज बोले - 'तुम वैद्य हो, यह तो बड़ा अच्छा है। मुझे बड़ा भयंकर रोग है। क्या तुम उसका भी उपचार कर सकते हो?'
देव बोला - "मैं आपके रोग का उपचार कर सकता हूँ।"
मुनिराज कहने लगे - 'यह रोग तो साधारण है। मुझे तो इससे भी भयंकर रोग है। वह रोग है जन्ममरण का। यदि तुम उसका उपचार कर सकते हो तो कर दो।'
सुनकर वैद्य वेषधारी देव लज्जित होकर बोला - 'मुनिनाथ! इस रोग को तो आप ही नष्ट कर सकते हैं। मुनिराज मुस्कुराकर कहने लगे - 'भाई! जब तुम इस रोग को नष्ट नहीं कर सकते तो फिर मुझे तुम्हारी आवश्यकता नहीं है। शरीर की व्याधि तो मेरे स्पर्श मात्र से ही दूर हो सकती है, उसके लिए वैद्य की क्या आवश्यकता है।' यों कहकर मुनिराज ने एक हाथ पर दूसरे हाथ को फेरा तो वह स्वर्ण जैसा निर्मल बन गया। मुनिराज की इस अद्भुत शक्ति को देखकर अपने असली रूप को प्रगट कर देव हाथ जोड़कर बोला - 'देव! सौधर्मेन्द्र ने आपकी जैसी प्रशंसा की थी, मैंने आपको वैसा ही पाया।' और वह बड़ी श्रद्धा से
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