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जब भागीरथ ने यह समाचार सुना कि पिताश्री तो दीक्षित हो ही गये, सभी भाइयों ने भी दीक्षा ले श | ली है तो वह भी उन मुनिराजों के पास गया और उन सबको भक्तिपूर्वक नमस्कार कर जिनेन्द्रोक्त धर्म का स्वरूप सुना तथा श्रावक के व्रत ग्रहण किये।
अन्त में मित्रवर मणिकेतु ने सगर आदि मुनियों के समक्ष अपनी समस्त माया और छल-छद्म प्रगट | कर दिया और कहा - "आप लोग मेरी धृष्टता को क्षमा करें।"
उत्तर में समस्त मुनिराजों और भागीरथ ने कहा कि आप क्षमा मांगकर हमें लज्जित न करें। यह सब तो आपने हमारे ही हित के लिए किया है। इसप्रकार उन सब मुनियों ने मणिकेतु का उपकार मानते हुए उसे सान्त्वना दी। अपने कृत संकल्प को सफल करके वह मणिकेतु देव वापिस स्वर्ग चला गया।
नीतिकार कहते हैं कि “अन्य प्राणियों के कार्यसिद्ध करने में अर्थात् परोपकार करने में ही प्राय: महापुरुषों को सन्तोष होता है। कहा भी है - परहित सरिस धर्म नहीं भाई और पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।"
दूसरों को भला करने से बढ़कर कोई पुण्य कार्य नहीं है और दूसरों को पीड़ा पहुँचाने से बड़ी कोई अधमाई (नीचता) पाप की प्रवृत्ति नहीं है। वे सभी मुनिराज चिरकाल तक यथाविधि तपश्चरण करके सम्मेदशिखर पर्वत पर पहुँचे और शुक्लध्यान के द्वारा परमपद को प्राप्त हुए।
"उन सबको मोक्ष प्राप्त हो गया" यह समाचार जानकर भागीरथ का मन निर्वेद से भर गया। उसे भी वैराग्य हो गया। अत: उसने वरदत्त पुत्र के लिए अपनी राज्य लक्ष्मी सौंपकर कैलाश पर्वत शिवगुप्त महामुनि से दीक्षा ले ली तथा गंगा नदी के तट पर प्रतिमा योग धारण कर लिया, ध्यानस्थ हो गये।
इन्द्र ने क्षीरसागर के जल से महामुनि भागीरथ के चरणों का प्रक्षालन किया। क्षीरसागर का वह जल मुनि के चरण कमलों का स्पर्श पाकर मानो धन्य हो गया। उस प्रक्षालित जल का प्रवाह गंगा नदी में जाकर मिल गया। उसीसमय से गंगानदी भी इस लोक में तीर्थ मानी जाने लगी। महामुनि भागीरथ गंगानदी के तट पर उत्कृष्ट तप कर वहीं से निर्वाण को प्राप्त हुए।
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