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आपके जो पुत्र कैलाश पर्वत पर खाई खोदने गये थे, वे सब मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं। इसलिए आपको अपने कहे हुए मार्ग के अनुसार दीक्षा लेकर मृत्यु को जीतकर अमर होने का प्रयत्न करना चाहिए।"
ब्राह्मण के ऐसे समाचार सुनकर चक्रवर्ती राजा का वज्र की भांति सुदृढ़ हृदय भी हिल गया। वह क्षणभर के लिए निश्चेष्ट हो गया। अनेक उपचार करने से सचेत हुआ सगर चक्रवर्ती इसप्रकार कहने लगा - “व्यर्थ ही खेद बढ़ाने वाली लक्ष्मी (माया) मुझे नहीं चाहिए। स्नेह का समागम नश्वर है, शरीर अशुचि है, विनाशीक है, मल-मूत्र की थैली है, कीकस वसादि से मैली है, हाड़ का पींजरा है, घिनावनी है, क्षय हो जानेवाला है। अतः अब मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ये सब अकल्याणकारी हैं। यह यौवन इन्द्र धनुष के समान नश्वर है, मैं मूर्ख फिर भी इन्हीं में मूढ़ हो रहा हूँ" - ऐसा विचार कर सगर चक्रवर्ती ने भागीरथ पुत्र को राज्य सौंप कर स्वयं दृढ़धर्म केवली के समक्ष दीक्षा धारण कर ली।"
नीति कहती है कि विवेकी पुरुष घर में तभी तक रहते हैं, जबतक विरक्त होने के कोई बाह्य और आभ्यन्तर कारण नहीं मिलते । काललब्धि आने पर तो प्रतिदिन घटनेवाली घटनायें भी निमित्त बन जाती हैं।
इधर चक्रवर्ती ने संसार को असार और संयोगों का अन्त वियोग के रूप में बदलता देख तथा भली होनहार एवं काललब्धि आते ही जिनदीक्षा ग्रहण की, उधर वह मणिकेतु देव उन पुत्रों के पास पहुँचा और कहने लगा कि किसी ने आप लोगों के मृत्यु का समाचार आप लोगों के पिता राजा सगर से कह दिया, जिसे सुनकर पहले तो वे शोक से व्याकुल हुए और अन्त में भागीरथ को राज्य देकर तप करने लगे।
ऐसा कहकर उस देव ने मायामयी भस्म से अवगुंठित उन राजकुमारों को सचेत कर दिया । नीतिकारों ने कहा भी है - "मित्रों की माया या छल भी हित करनेवाली होती है।" पिताश्री के वैरागी होने के समाचार जानकर उन चरम शरीरी विवेकी राजकुमारों ने मणिकेतु देव का उपकार मानते हुए और कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए संसार को असार जानकर जिनेन्द्र भगवान का आश्रय लेकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली।
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