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(३३९| मन्दिर बनवाये थे, तुम लोग उस पर्वत के चारों ओर गंगा नदी को मोड़कर उन मन्दिरों की परिखा (खाई)||
| बना दो। उन पुत्रों ने पिता की आज्ञानुसार दण्डरत्न से वह काम शीघ्र ही कर दिया। | प्रेम और सज्जनता से उत्प्रेरित होकर मणिकेतु देव फिर भी अपने मित्र राजा सगर को समझाने के लिए
योग्य उपाय सोचने लगा। उसने सोचा कि - "वचन चार प्रकार के होते हैं, (१) कुछ वचन तो हितमित पु || होते हैं, जिन्हें सर्वोत्तम कहा जाता है। ये अधिकांश मुनि भूमिका में ही संभव होते हैं। (२) दूसरे, कुछ | वचन हितकर होते हुए भी अप्रिय या कर्णकटु होते हैं। इन वचनों का प्रयोग माता-पिता और गुरुजन करते हैं, इनका प्रयोग मध्यम श्रेणी के लोग करते हैं। (३) तीसरे प्रकार के वचन सुनने में तो प्रिय लगते हैं, प्रयोग में अहित कर सिद्ध होते हैं। ऐसे वचन चाटुकार लोग या स्वार्थी लोग करते हैं। ऐसे लोग सोचते हैं कि हम कठोर बोलकर बुरे क्यों बनें, हित-अहित की बात वे स्वयं सोचें। हमारा काम बनना चाहिए, उसकी वह जाने । ऐसे लोग अधम व्यक्तियों की श्रेणी में गिने जाते हैं और (४) चौथे कुछ लोग अहितकर और अप्रिय बोलकर मन ही मन खुश होते हैं, उन्हें अधमाधम मानवों की श्रेणी में गिना जाता है।
"इन चार प्रकार के वचनों में अन्तिम दो प्रकार के वचनों को छोड़कर प्रथम दो प्रकार के वचनों से हित का उपदेश दिया जा सकता है ?” ऐसा निश्चय कर वह मणिकेतु देव अपने मित्र सगर चक्रवर्ती को सन्मार्ग पर लाने हेतु एक दुष्टनाग का रूप धारण कर कैलाश पर्वत पर आकर उन स्वाभिमानी राजकुमारों को अपनी विक्रिया से भस्म करने का प्रदर्शन किया। नीतिकार कहते हैं - "ठीक ही है जब सीधी उंगली से पीपा में से घी नहीं निकलता तो उंगलियों को टेड़ा करना ही पड़ता है। मणिकेतु देव को जब अन्य कोई उपाय नहीं सूझा तो उसने सगर का हित करने हेतु यह मध्यम प्रयोग किया।
सगर के मंत्री यह जानते थे कि राजा का पुत्रों पर भारी स्नेह है, अतः पुत्रों का मरण जानकर भी वे मंत्रीगण राजा को यह दु:खद समाचार नहीं दे सके। वे तो उस समाचार को उल्टा छिपाये रहे।
तत्पश्चात् वह मणिकेतु स्वयं ब्राह्मण का रूप धरकर चक्रवर्ती सगर के पास पहुँचा और बहुत भारी शोक से आक्रान्त होने का प्रदर्शन करते हुए कहने लगा - "हे राजन्! यद्यपि आप पृथ्वी मण्डल का शासन ||
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