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के वशीभूत हुए चक्रवर्ती ने अच्युत स्वर्ग की लक्ष्मी भुला दी। सो ठीक ही है - 'कामी मनुष्यों को अच्छे| बुरे के अन्तर का विवेक कहाँ होता है ?' वह सोचता है कि मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि यह चक्रवर्ती
अपने चक्रवर्तित्व के वैभव और भोगोपभोगों में विवेकशून्य हो गया है। अस्तु स्वर्ग और मोक्षलक्ष्मी का लाभ भी इसे अभी लाभ सा नहीं लगता - ऐसा समझकर ही यह पुत्रों के मोह में मस्त हो रहा है। ____एक बार की बात है कि सिंह के बच्चों के समान उद्धत और स्वाभिमान से भरे वे राजपुत्र सभा में विराजमान चक्रवर्ती सगर से कहने लगे - “शूरवीरता और साहस से सुशोभित क्षत्रिय पुत्रों का यौवन यदि दुःसाध्य कार्य में पिता का मनोरथ सिद्ध नहीं करता तो ऐसे यौवन को धिक्कार है। वह बकरे के गले में लटकते स्तनों के समान निरर्थक है। जन्म और यौवन का अस्तित्व तो सर्वसाधारण जीवों के जीवन में भी होता। उसमें हमारी क्या विशेषता है। अत: आप हम लोगों को साहसपूर्ण कार्य सौंपिए, जिसमें हम अपने प्राप्त यौवन और बल को सार्थक कर सकें।"
चक्रवर्ती ने उनके प्रस्ताव का आदर करते हुए कहा - "बेटा! आप लोगों का कथन बिल्कुल सत्य है, परन्तु चक्ररत्न से सबकुछ प्राप्त हो चुका है। अब तुम्हारे लिए तो बस यही काम है कि इस प्राप्त राज्यलक्ष्मी का सुख से उपभोग करो।"
पिता के कहने पर उस समय तो पुत्र चुप हो गये; क्योंकि नीतिकार का कथन है कि 'शुद्ध वंश में उत्पन्न हुए सुपुत्र पिता के आज्ञाकारी ही होते हैं; परन्तु आत्मशुद्धि से भरे वे राजपुत्र एक दिन पुनः पिता के पास पहुँचे और विनम्र भाव से साग्रह निवेदन करने लगे कि “यदि आप हम लोगों को कोई भी कार्य नहीं देते हैं तो हम भोजन ग्रहण नहीं करेंगे ?"
पुत्रों का निवेदन सुनकर पिता कुछ चिन्ता में पड़ गये। वे सोचने लगे – “इन्हें कौन सा काम दिया जाय? अकस्मात् उन्हें याद आया कि धर्म का एक काम बाकी है, जिसे ये सब मिलकर करें। उन्होंने हर्षित होकर पुत्रों को आदेश दिया कि भरत चक्रवर्ती ने कैलाशपर्वत पर जो महारत्नों से अरहन्तदेव के चौबीस || २४
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