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________________ चारण मुनि वेषधारी देव ने संसार के स्वरूप का चित्रण करते हुए वैराग्यवर्द्धक वचन कहे - “हे राजन्! यह यौवन बुढ़ापे के द्वारा ग्रसनेवाला है, आयु प्रतिक्षण कम हो रही है, यह सुन्दर शरीर नवमल द्वारों से दुर्गन्धित और मलिन है, इसके एक-एक रोम में ९६-९६ रोग हैं, सचमुच देखा जाय तो यह देह व्याधियों का ही घर है। जन्म-जरा-मृत्यु आदि १८ दोषों से युक्त है। अशुचि भावना में तो स्पष्ट कहा है कि - यह देह मांस, खून, पीव और मल-मूत्र की थैली है, हड्डी, चर्बी आदि से अत्यन्त मैली है, इस देह में नौ द्वारों से घृणास्पद मल प्रवाहित होता है। हे भाई ! तू ऐसी देह से प्रेम क्यों करता है? इससे अपने मोक्षमार्ग को साध कर इसे सफल क्यों नहीं करता?" || ये घर, द्वार, गोधन, हाथी, घोड़ा, नौकर-चाकर, यह युवावस्था तथा ये इन्द्रियों के भोग - सब इन्द्रधनुष | और बिजली के समान क्षणिक हैं, नाशवान हैं; अत: इनसे राग तोड़ और आत्मा से प्रीति जोड़! ॥ हे भव्य पुरुषोत्तम ! संसार में इष्ट वस्तुओं का वियोग और अनिष्ट वस्तुओं का संयोग सदैव होता ही | रहता है। जिनके निमित्त से कुगति का कारण आर्तध्यान होता रहता है। अत: मैं तपरूपी अग्नि के द्वारा कर्मों को जलाकर सुवर्ण के समान अविनाशी शुद्धि एवं अव्याबाध सुख को प्राप्त करूँगा।" ___ मुनिवेष धारी पूर्वभव के मित्र मणिकेतु देव के इसप्रकार कहने पर चक्रवर्ती सगर संसार के दुःखद स्वरूप को समझकर संसार से किंचित् उदास तो हुआ, परन्तु मोक्षमार्ग अभी भी नहीं पा सका; क्योंकि वह निमित्त रूप में तो पुत्र व्यामोह की सांकल से जकड़ा था और वस्तुस्वरूप की तरफ से देखें तो अभी उसकी काललब्धि ही नहीं आई थी। अथवा यों कहें कि अभी उसका दीर्घ संसार शेष था। मणिकेतु जब इस उपाय में भी सफल नहीं हुआ तो वह मन में विषाद करता हुआ वापिस चला गया। नीतिकार कहते हैं कि 'निष्फल उपाय किस बुद्धिमान को विषादयुक्त नहीं करता। कोई कितना भी समझदार क्यों न हो तत्काल विषाद तो हो ही जाता है। भूमिकानुसार जबतक जितने कषायकण अथवा तत्संबंधी राग विद्यमान है, तदनुसार यत्किंचित् दुःख तो हो ही जाता है।' वह मणिकेतु देव सोचने लगा कि "देखो, चक्रवर्तित्व के साम्राज्य की तुच्छ लक्ष्मी और पुत्र व्यामोह ॥ २४
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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