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(३३२|| हे राजन्! चक्रवर्ती की समस्त सम्पत्ति से भी इस मनुष्य भव का एक-एक समय बहूमूल्य है - ऐसी
यह मानव पर्याय और आत्मकल्याण के अनुकूल यह सुकुल, उत्तम देह, जिनवाणी का सान्निध्य सभी कुछ सहज उपलब्ध है; फिर भी यदि तुम इन विषवत् भोगों में अटके रहे; आत्मा से परमात्मा बनने की ओर
अग्रसर नहीं हुए तो तुम्हारे इस चक्रवर्तित्व को धिक्कार है, धिक्कार है; अनन्तबार धिक्कार है। | हे सगर ! तू इस क्लेशरूप संसार से विरत हो! प्रमाद छोड़कर जाग्रत हो! यदि तू आत्महित में प्रवृत्त नहीं हुआ तो रत्नचिन्तामणि जैसी यह मूल्यवान पर्याय निष्फल हो जायेगी।"
मणिकेतु के इतना सम्बोधने पर भी जब चकव्रर्ती सगर भोगों से विरत नहीं हुआ तो मणिकेतु वापिस देवलोक चला तो गया; परन्तु वह ऐसा उपाय सोचने लगा, ताकि सगर का हृदय द्रवित हो उठे और उसे संसार का सुख असार लगने लगे। मणिकेतु यह भलीभांति जानता था कि “जगत के जीवों का यह स्वभाव ही है कि वे जिस पर्याय में जाते हैं, वहीं रम जाते हैं। विष्ठा का कीड़ा विष्ठा में ही रम जाता है, दुःखद पर्याय से भी मुक्त नहीं होना चाहता; फिर सगर तो चक्रवर्ती है, अत: वह आसानी से विरक्त नहीं होगा।"
मणिकेतु देव सोचता है कि "उसकी समझ में तबतक कुछ नहीं आयेगा जबतक उसकी भली होनहार नहीं होगी और मुक्तिमार्ग की काललब्धि नहीं आयेगी।" अपने आपको सान्त्वना देते हुए भी मणिकेतु मित्र के अनुरागवश सगर को सम्बोधने के लिए पुन: व्याकुल हो उठा।
सगर को संसार-शरीर और भोगों से विरक्त कराने के लिए मणिकेतु के मन-मस्तिष्क में एक उपाय सूझा - अत: वह पुन: पृथ्वी लोक पर आया और इस बार उसने चारण ऋद्धिधारी मुनि का रूप बनाया। वह मुनि वेषधारी मणिकेतु देव संयम की भावना भाता हुआ जिनेन्द्र देव की वन्दना कर सगर चक्रवर्ती के चैत्यालय में जा ठहरा।
उस चारण ऋद्धिधारी धारक, युवा, रूपवान, बलवान एवं सर्वगुणसम्पन्न मुनि को देखकर चक्रवर्ती सगर आश्चर्यचकित हो गया। उसने पूछा - "आपने इस अवस्था में यह तप धारण क्यों किया ?" ||२४
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