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|| के निर्वाण गमन के पश्चात महाराजा भरत ने उस निर्वाण भूमि पर रत्नमय चौबीस जिन मन्दिरों का निर्माण | कराया। भरत ने एक दिन दर्पण में मुख देखते हुए शिर के बालों में एक श्वेत केश देखा और तत्क्षण भोगों से विरक्त हो गये। अपने अर्ककीर्ति पुत्र को राज्यपद देकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। केशलौंच करते ही अन्तर्मुहूर्त में उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया। जिससे भरत केवली सर्वज्ञ प्रभु होकर इन्द्रों द्वारा वन्दनीय गन्धकुटी में विराजमान हो गये। बहुत काल तक भव्य जीवों को धर्मोपदेश देते हुए आयु के अंत समय में वृषभसेन आदि गणधरों के साथ कैलाश पर्वत पर कर्मों का क्षय करके केवली भगवान भरत ने मोक्ष प्राप्त किया।
२. सगर चक्रवर्ती तीर्थंकर अजितनाथ के तीर्थकाल में सगर नामक दूसरे चक्रवर्ती हुए, सगर चक्रवर्ती की पूर्व पर्याय का | परिचय कराते हुए कहा है कि इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में वत्सकावती देश का तत्कालीन राजा जयसेन
था। जयसेन के दो पुत्र थे। एक रतिषण और दूसरा घृतिषेण । वे दोनों पुत्र पुण्यवान और बलवान तो थे ही, अपने सौन्दर्य और कान्ति से सूर्य के तेज और चन्द्र की कान्ति को भी फीका करते थे।
राजा जयसेन और उसकी पत्नी जयसेना को वे दोनों पुत्र इतने प्रिय थे कि वे एक पल को भी उन्हें अपने पास से पृथक् नहीं कर सकते थे। अत: वे उन्हें अपनी आँखों से ओझल नहीं होने देते थे। परन्तु काल की गति विचित्र है, जिन्हें वे एक पल को पृथक् नहीं करते, उनमें प्रथम रतिषेण असमय में ही दिवंगत हो गया, उसके मरण से पुत्र वियोग के दुःख को न सह पाने के कारण वे दोनों मूर्छित हो गये।
कहते हैं कि 'काल के गाल में सब समा जाते हैं।' ज्यों-ज्यों समय बीतता गया वे भी सहज होते गये; परन्तु रतिषेण की मौत से उनके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया। वे संसार से विरक्त हो गये। मृत्यु से सदा के लिए छुटकारा पाने को अपने द्वितीय पुत्र घृतिसेन को राज्य शासन सौंपकर अपने अजरअमर स्वरूप के सहारे जिनदीक्षा धारण कर ली। उनके साथ उनके साले महारुत तथा और भी अनेक राजा | दीक्षित हुए।
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