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करते हुए समस्त वृत्तान्त दूत के माध्यम से चक्रवर्ती सम्राट के पास भिजवाया। भरतजी ने परिस्थिति की श गंभीरता और सच्चाई को समझते हुए युवराज अर्ककीर्ति को अपराधी पाया; अत: उन्होंने निश्चय किया
कि "मैं उसे अवश्य दण्ड दूंगा।" इसप्रकार दूत से भरत महाराज ने स्पष्ट शब्दों में कहा । तदनन्तर चक्रवर्ती ने युवराज अर्ककीर्ति को राजसभा में बुलाकर उसके कृत्य की समुचित भर्त्सना की।
एक दिन भरत ने सोचा कि "हमने जो वैभव प्राप्त किया है उसे कहाँ खर्च किया जाय ? मुनि तो धन से निःस्पृह रहते हैं। अतः अणुव्रत धारी गृहस्थों के लिए ही धनाधिक देना चाहिए।" एतदर्थ उनकी पात्रता की परीक्षा हेतु एक दिन भरत चक्रवर्ती ने नगर के सब लोगों को किसी उत्सव के बहाने अपने घर बुलाया। घर के अन्दर पहुँचने के मार्ग हरित अंकुरों से आच्छादित करा दिये। बहुत से लोग उन मार्गों से चक्रवर्ती के महल में प्रविष्ट हुए; परंतु कुछ लोग बाहर खड़े रहे। चक्रवर्ती ने उनसे भीतर न आने का जब कारण पूछा तब उन्होंने कहा कि "मार्ग में उत्पन्न हुई हरी घास आदि स्वयं एकेन्द्रिय जीव हैं। हम लोगों के चलने से वे सब मर जायेंगे अतः जीवों की रक्षा के कारण हम लोग अन्दर आने में असमर्थ हैं।” चक्रवर्ती उनके इस उत्तर से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उन्हें 'ब्राह्मण' संज्ञा दी। यही लोग ब्राह्मण कहलाये। महाराजा आदिनाथ द्वारा स्थापित क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्गों के साथ ब्राह्मण वर्ण की स्थापना करने से भरतजी सोलहवें कुलकर माने गये। भरत के नाम से ही इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा।
भरत महाराज अपने धर्मध्यान को बनाये रखने के लिए सभी आवश्यकों को नित्य प्रति सम्पन्न करते थे। मुनियों के प्रति भक्ति और आहारदान में उनकी तत्परता का एक प्रसंग बड़ा मार्मिक एवं प्रेरक हैं -
नगर में एक दिन अनेक मुनि चर्या के लिए पधारे, किन्तु मार्ग में अन्य श्रावकों ने उनका पड़गाहन कर लिया। अतः राजमहल तक कोई मुनिराज नहीं आ पाये। इसलिए भरत चिन्तामग्न हो गये। वे बार-बार विचार करने लगे - थोड़ी देर में उन्हें आकाश में गतिशील प्रभापुंज दिखाई पड़ा। भरत आश्चर्यचकित होकर उधर देखने लगे। धीरे-धीरे उस प्रभापुंज ने आकार ग्रहण करना प्रारम्भ किया। वे और कोई नहीं, ॥ २४
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