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३२६॥ विजय यात्रा करते हुए चक्रवर्ती ने वृषभाचल पर्वत की एक सपाट शिला पर अपना नाम अंकित करना | चाहा। उन्होंने सोचा था कि “समस्त पृथ्वी को जीतनेवाला मैं ही प्रथम चक्रवर्ती हूँ।" किन्तु जब वे नाम
अंकित करने गये तो उन्हें यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि वहाँ नाम लिखने के लिए कोई स्थान ही रिक्त नहीं था। तब भरत का अभिमान नष्ट हो गया। ऐसी स्थिति में उन्होंने एक चक्रवर्ती की प्रशस्ति को | अपने हाथ से मिटाया और अपनी प्रशस्ति अंकित की।
तत्पश्चात् विजया पर्वत की उत्तर और दक्षिण श्रेणी के विद्याधर राजा नमि और विनमि चक्रवर्ती के लिए उपहार में सुन्दर कन्यायें भी लाये थे। भरत ने राजा नमि की बहिन सुभद्रा के साथ विद्याधरों की परम्परा के अनुसार विवाह किया। यही सुभद्रा चक्रवर्ती की पटरानी पद पर प्रतिष्ठित हुई। दिग्विजय के पश्चात् सुदर्शन चक्र के अयोध्या में प्रवेश न करने पर बुद्धिसागर मंत्री से इसका कारण “भाइयों द्वारा अधीनता स्वीकार न किया जाना" ज्ञात कर इन्होंने उनके पास दूत भेजे थे। बोधि प्राप्त होने से बाहुबली को छोड़ शेष भाइयों ने इनकी अधीनता स्वीकार न करके अपने पिता ऋषभदेव से दीक्षा ले ली थी। बाहुबली ने इनके साथ दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध तथा मल्लयुद्ध किये तथा तीनों में भरतजी ने सोच-समझकर बुद्धिपूर्वक बाहुबली को जिताया। इसका विशेष विवरण शलाका पुरुष पूर्वार्द्ध में देखें।
भरत चक्रवर्ती न्यायप्रिय सम्राट थे। एक समय काशी नरेश अकम्पन की पुत्री सुलोचना का स्वयंवर विवाह रचा गया। स्वयंवर विवाह में अनेक देशों के राजकुमार उपस्थित हुए। भरत के पुत्र युवराज अर्ककीर्ति एवं सेनापति जयकुमार भी उपस्थित हुए। कंचुकी से सभी राजकुमारों का परिचय प्राप्त करते हुए सुलोचना ने हस्तिनापुर नरेश महाराज सोमप्रभ के यशस्वी पुत्र सेनापति जयकुमार का वरण किया। इस पर भरत पुत्र युवराज अर्ककीर्ति ने अपना अपमान समझा। उन्हें उनके सेवक और अन्य राजाओं ने भड़का दिया जिससे वह जयकुमार से युद्ध करने को तत्पर हो गये। जयकुमार ने भी शूरवीरता से युद्ध किया और अर्ककीर्ति को पराजित कर पकड़ लिया। महाराज अकम्पन और जयकुमार ने अपनी लघुता प्रगट || २७