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यह पद कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता । स्वर्ग से आने वाले जीवों को ही यह पद प्राप्त होता है। । वर्तमान चौबीस तीर्थंकरों के काल के चक्रवर्ती :- भरत क्षेत्र में भरत, सगर, मघवा, सनतकुमार, शांति,
कुन्थु, अर, सुभौम, पद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त ये बारह चक्रवर्ती छह खण्ड रूप पृथिवी मंडल को | सिद्ध करनेवाले और कीर्ति से भुवनतल को भरने वाले उत्पन्न हुये हैं। ये बारह चक्रवर्ती सर्व तीर्थंकरों की प्रत्यक्ष एवं परोक्ष वन्दना में आसक्त तथा अत्यन्त गाढ़ - भक्ति से भरपूर रहते हैं।
१. भरत चक्रवर्ती अयोध्या नगरी के महाराजा युगादि पुरुष ऋषभदेव की यशस्वती महारानी से चक्रवर्ती भरत का जन्म हुआ था। ऋषभदेव के १०० पुत्रों में यह ज्येष्ठ पुत्र थे। ब्राह्मी इनकी बहिन थी। रात्रि के अन्तिम प्रहर में | शयन करते समय माता ने स्वप्न में सुमेरु पर्वत, सूर्य, चन्द्रमा, कमल युक्त सरोवर, ग्रसी हुई पृथ्वी और समुद्र देखे - इन छह शुभ स्वप्न पूर्वक भरतजी माता के गर्भ में आये। चैत्र वदी नवमी की शुभ तिथि में उनका जन्म हुआ। भगवान ऋषभदेव ने दीक्षा के लिए जाते समय इन्हें साम्राज्य पद पर प्रतिष्ठित किया था।
एक समय भरत को एक साथ तीन समाचार ज्ञात हुए कि - रनिवास में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है, आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ है और पूज्य पिता श्री को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है। इन तीनों शुभ, सुखद समाचारों को सुनकर उन्हें अपार प्रसन्नता हुई। किसका उत्सव पहले मनायें यह असमंजस भरत महाराज को क्षण भर को हुई, कि शीघ्र ही उन्होंने विचार किया कि पुत्रोत्पत्ति काम का फल है, चक्र का प्रकट होना अर्थ का फल है और केवलज्ञान की प्राप्ति धर्म का फल है। अतः धर्म का कार्य प्रथम करने के लिए भरत ने सर्वप्रथम समवसरण में जाकर भगवान की पूजा की, और उपदेश सुना । तदनन्तर चक्ररत्न की पूजा करके पुत्र का जन्मोत्सव मनाया। अनन्तर भरत महाराज ने दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। दिग्विजय यात्रा में भरतजी को साठ हजार वर्ष लगे।
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