________________
AREEFFFFy
चक्रवर्ती पद का सामान्य स्वरूप • चक्रवर्तियों की दिग्विजय - पूर्व जन्म में किये गये पुण्य के फल से प्राप्त छह खण्ड पृथ्वी के सम्राट को चक्रवर्ती कहते हैं, उसकी आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट होता है, जिसके द्वारा वह सर्वप्रथम जिनेन्द्र पूजन करके छह खण्ड पर दिग्विजय के लिए प्रस्थान करता है। पौराणिक कथानकों में ऐसे उल्लेख हैं कि चक्रवर्ती राजा पहले पूर्व दिशा की ओर जाकर गंगा के किनारे-किनारे उपसमुद्र पर्यन्त जाता है। बारह योजन पर्यन्त समुद्र तट पर प्रवेश करके वहाँ से अमोघ नामा वाण फेंकता है, जिसे देखकर मागध देव | चक्रवर्ती की अधीनता स्वीकार कर लेता है। यहाँ से वैजयन्त नामा दक्षिण द्वार पर पहुँचकर पूर्व की भाँति ही वहाँ रहने वाले वरतनु देव को वश करता है और सिन्धु नदी के द्वार में स्थित प्रभास देव को भी वश करता है। तत्पश्चात् नदी के तट से उत्तरमुख होकर विजयार्ध पर्वत तक जाता है और पर्वत के रक्षक वैताढ्य नामा देव को वश करता है। तब सेनापति उस पर्वत की पश्चिम गुफा को खोलता है। गुफा में प्रवेश करने के पहले पश्चिम के म्लेच्छ राजाओं को वश में करने के लिये चला जाता है। जबतक वह वापिस लौटता है तबतक उस गुफा की वायु शुद्ध हो जाती है। तत्पश्चात् सर्व सैन्य को साथ लेकर उस गुफा में प्रवेश करता है और कांकिणी रत्न से गुफा के अन्धकार को दूर करता है। सर्व सैन्य गुफा से पार हो जाती है। यहाँ पर सेना को ठहराकर पहले सेनापति पश्चिम खण्ड के देव से युद्ध करता है। देव के द्वारा अतिघोर वृष्टि की जाने पर चक्रवर्ती छत्ररत्न व चर्मरत्न से सैन्य की रक्षा करता हुआ उस देव को भी जीत लेता है। फिर वृषभगिरि पर्वत के निकट आता है। चक्रवर्ती वृषभगिरि पर्वत पर अपना नाम लिखने के लिए विजय | प्रशस्तियों से सर्वत्र व्याप्त उस वृषभाचल को देखकर और अपने नाम को लिखने के लिए तिलमात्र भी || २४