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________________ ला स्थान न पाकर उसका चक्रवर्तित्व का प्रथम विजेता होने का अभिमान टूट जाता है। वह सोचता है “मेरे | पहले असंख्य चक्रवर्ती यहाँ विजय प्राप्त कर अपना-अपना नाम लिख चुके हैं और न जाने कितनों ने मेरी | ही भाँति दूसरों के नाम मिटाकर अपने नाम लिखे होंगे।" फिर भी पूर्व परम्परा के अनुसार अन्तिम चक्रवर्ती का नाम मिटाकर के अपना नाम अंकित करता है। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से चौबीसवें तीर्थंकर के काल में ऐसे बारह वर्तमान काल में चक्रवर्ती हुए हैं का • चक्रवर्तियों का वैभव - प्रत्येक चक्री उत्तम संहनन, (मजबूत हड्डियाँ), उत्तम संस्थान (उत्तम आकृति) से युक्त सुवर्ण वर्ण वाले होते हैं। प्रत्येक के छयानवें हजार रानियाँ होती हैं- इनमें बत्तीस हजार आर्यखण्ड की कन्यायें, बत्तीस हजार विद्याधर कन्यायें और बत्तीस हजार म्लेच्छ कन्यायें होती हैं । प्रत्येक | चक्रवर्तियों के संख्यात हजार पुत्र-पुत्रियाँ, बत्तीस हजार गणबद्ध देव अंगरक्षक, तीन सौ साठ वैद्य, तीन रा सौ साठ रसोइये, साढ़े तीन करोड़ बन्धुवर्ग, तीन करोड़ गायें, चौरासी लाख भद्र हाथी, चौरासी लाख रथ, र्द्ध अठारह करोड़ घोड़े, एक लाख करोड़ हल, चौरासी करोड़ उत्तम योद्धा, अठासी हजार म्लेच्छ राजा, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा, बत्तीस हजार संगीत शालायें और अड़तालीस करोड़ पदातिगण होते हैं । ३२१) श पु रु pm F F 9205 ष उ त्त यद्यपि आज के परिप्रेक्ष्य में यह कथन असंभव-सा लगता है, पर काल अनादि - अनन्त है, पृथ्वी विपुल है, सृष्टि परिवर्तनशील है, वैभव भी असीमित है; अतः कुछ भी असंभव नहीं है । • चक्रवर्ती के चार प्रकार की राजविद्या - १. आन्वीक्षिकी - अपना स्वरूप जानना, अपना बल पहिचानना एवं अच्छा बुरा समझ लेना । २. त्रयी - शास्त्रानुसार धर्म-अधर्म समझकर अधर्म छोड़ देना और धर्म में प्रवृत्ति करना। ३. वार्ता - अर्थ - अनर्थ को समझकर प्रजाजनों का रक्षण करना । ४. दण्डनीति - योग्य दण्दविधान द्वारा दुष्टों को मार्ग पर लाना । • चक्रवर्ती के पाँच इन्द्रियों का विषय :- स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय एवं घ्राणेन्द्रिय से ९९ योजन तक का विषय जान लेते हैं । चक्षुरिन्द्रिय से ४,७२,६२७/७० योजन तक देख सकते हैं । श्रोत्रेन्द्रिय से १२ योजन तक का शब्द सुन सकते हैं । च 可丽可 可可和可可 क्र व र्ती प द का सा मा न्य स्व रू प पर्व २४
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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