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धनि घड़ी औ धनि दिवस यों ही धन जनम मेरो भयो।
अब भाग्य मेरो उदय आयो, दरस प्रभुजी को लखि लयो॥" भक्त अपने हृदय का हर्षोल्लास प्रगट करते हुए कह रहा है कि हे प्रभो ! आपके मुख मण्डलरूप दिनकर के दर्शन करने से मेरा मिथ्यात्वरूपी अंधकार नष्ट हो गया है और मेरे हृदय में सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य का उदय हो गया है। अत: मुझे ऐसा हर्ष हो रहा है, जैसे किसी रंक को चिन्तामणि रत्न मिलने पर होता है। मानो मुझ रंक को आपके दर्शन के रूप में चिन्तामणि रत्न ही मिल गया है। ___ और भी - “तुम गुणचिंतत निजपर विवेक प्रगटै विघटें आपद अनेक।
हे प्रभु! आपके गुणों का चिन्तवन करने से अपने-पराये की पहचान होती है, भेदविज्ञान रूप विवेक प्रगट हो जाता है तथा अनेक आपत्तियाँ-विपत्तियाँ विघटित हो जाती हैं।"
पर यहाँ तो यह देखना है कि जब देवदर्शन की इतनी महिमा है तो हमारे द्वारा प्रतिदिन किए जानेवाले देवदर्शन का यह सब फल हमें अब तक प्राप्त क्यों नहीं हुआ? कहीं न कहीं कुछ न कुछ कमी तो होना ही चाहिए। अन्यथा उपर्युक्त लाभ अवश्य मिलता।
हे भव्य ! तुम विचार करो कि तुम लौकिक विषयों की वांछा के चक्कर में तो नहीं पड़ गये?
कहीं तुमने सच्चे वीतरागी देव को रागी देव-देवताओं की श्रेणी में खड़ा तो नहीं कर दिया ? तुम लौकिक कामनाओं का पुलिन्दा लेकर कहीं गलत जगह तो नहीं पहुँच गये ? क्या तुमने सच्चे देव का सही स्वरूप समझा है और इनके दर्शन से क्या केवल सम्यग्दर्शन-आत्मदर्शन ही चाहा है? आदि कुछ बातें इस दिशा में विचारणीय हैं, यदि तुम सही दिशा में निर्णय पर पहुँचे हो तो तुम्हें देवदर्शन का लाभ अवश्य मिलेगा, इसमें जरा भी संदेह की गुजाइश नहीं है।
सभी भक्त भगवान का सही स्वरूप समझकर उनके दर्शन से निजदर्शन का लाभ उठायें, यही लेखक | की पावन भावना है। ॐ नमः।