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| उनका विहार जहाँ भी होता, वहाँ उनका उपदेश प्रतिदिन प्रात: दोपहर और सायं तीन बार छह-छह | घड़ी होता था। जिसप्रकार सूर्योदय होने पर रात्रिकालीन गहन अंधकार स्वत: विलीन हो जाता है; उसीप्रकार वीर प्रभु के दिव्यउपदेश द्वारा जन-जन के मन में व्याप्त विकार और अज्ञान-अन्धकार विलीन होने लगा। उनके उपदेशों के प्रभाव से समस्त देश का वातावरण अहिंसामय हो गया।
श्रावक शिष्यों में मगध सम्राट महाराजा श्रेणिक बिम्बसार प्रमुख थे। उनके कर्मठ शिष्य-परिवार में चौदह हजार साधु, छत्तीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं। वैसे उनके अनुयायियों की संख्ता तो अगणित थी।
अंत में विहार करते हुए भगवान महावीर पावापुर पहुँचे। वहाँ उन्होंने विहार और उपदेश से विराम ले, योग-निरोध कर, शुक्लध्यान की चरमावस्था में आरूढ़ हो, कर्मों के अवशेष चार अघातिया कर्मों का | भी अभाव कर, अन्तिम देह का पूर्णतः परित्याग कर निर्वाण पद प्राप्त किया।
प्रभु के निर्वाण का समाचार पा देवों ने आकर महान उत्सव किया, जिसे निर्वाणोत्सव कहते हैं। पावानगरी प्रकाश से जगमगा गई।
तीर्थंकर भगवान महावीर का प्रात: निर्वाण हुआ और उसी दिन सायंकाल उनके प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतम गणधर को पूर्णज्ञान (केवलज्ञान) की प्राप्ति हुई। इसकारण यह दिन द्विगुणित महिमावंत हो गया। भगवान महावीर के वियोग से दुःखी धर्म-प्रजा को केवली गौतम को पा कुछ आश्वासन मिला।
यद्यपि भगवान महावीर के बाल्यकाल में घटी सभी घटनायें यथार्थ हैं और एक नन्हें से बालक द्वारा किए गए उन साहसपूर्ण कार्यों की महिमा भी स्वाभाविक है; परन्तु अनन्तवीर्य के धनी तीर्थंकर भगवान महावीर के लिए वे सब नाम ओछे पड़ते हैं, जैसे ५ वर्ष के बालक के जन्मदिन पर आये बहुमूल्य कपड़े २५ वर्ष के युवक के लिए नहीं पहनाये जा सकते, ठीक उसीप्रकार बचपन के नाम पचपन वर्षीय प्रौढ़ के | लिए सार्थक संज्ञा नहीं पा सकते।