SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३१५ श ला का पु रु 5 m F F 90 ष उ त्त रा इन्द्र ने इन्द्रभूति गौतम के समक्ष एक छन्द प्रस्तुत किया एवं अपने को महावीर का शिष्य बताते हुए उसका अर्थ समझने की जिज्ञासा प्रगट की । छन्द में जो कहा गया था उस पर विचार करते हुए वे सोचने लगे - “तीन काल, छह द्रव्य, नौ पदार्थ, षट्काय जीव, षट् लेश्या, पंचास्तिकाय, व्रत, समिति, गति, ज्ञान, चारित्र" - ये सब क्या हैं ? इन सबकी क्या-क्या परिभाषाएँ हैं, इनके भेद-प्रभेद क्या हैं, इन सबकी जानकारी तो मुझे है ही नहीं। इन सबका ज्ञान जबतक मुझे ही नहीं है, तबतक मैं इसे क्या बताऊँ । पर इन्कार भी कैसे करूँ, यह क्या सोचेगा ? वृद्ध ब्राह्मण वेषधारी इन्द्र ने उनके चेहरे पर आते उतार-चढ़ाव को स्पष्ट अनुभव किया और उनके स्वाभिमान पर चोट करते हुए बोले- क्या मुझे यहाँ से भी निराश लौटना होगा ? उक्त वाक्य से इन्द्रभूति के अहंकार को कुछ चोट लगी, पर अपने तत्संबंधी अज्ञान को अहं में छिपाते हुए इन्द्रभूति ने कहा - इस संबंध में मैं तुम्हारे गुरु से ही चर्चा करूँगा ? चलो, वे कहाँ हैं ? मैं उन्हीं के पास चलता हूँ । वृद्ध ब्राह्मण (इन्द्र) का प्रयोग सफल हुआ अतः आगे-आगे वृद्ध ब्राह्मण (इन्द्र) और पीछे-पीछे अपने पाँच सौ शिष्य समुदाय के साथ इन्द्रभूति गौतम चले पड़े । वस्तुतः इन्द्रभूति के सद्धर्म प्राप्ति का काल आ गया था। साथ ही भगवान की दिव्यध्वनि के खिरने का समय भी आ चुका था । समवशरण के द्वार पर स्थित मानस्तम्भ की ओर देखते ही उनका मान गल वे विनम्र भाव से समवशरण में पहुँचे, भगवान के दर्शन किए देखते ही रहे । प्रभु सिंहासन से चार अंगुल ऊपर अधर में अन्तर की निर्विकारी स्थिति स्पष्ट प्रतिभासित हो रही थी । गया और अज्ञान अन्धकार गायब हो गया। और बाहर का विशाल वैभव देखा तो वे | विराजमान थे । उनकी शान्त मुद्रा में उनके अन्तर्मग्न प्रभु की मुद्रा ने मानो इन्द्रभूति गौतम को मौन उपदेश दिया कि “यदि तुझे अतीन्द्रिय आनन्द एवं अन्तर की सच्ची शान्ति चाहिए तो मेरी ओर क्या देखता है ? अपनी ओर देख, तू स्वयं अनन्त ज्ञान एवं अनन्त आनन्द का पिण्ड परमात्मा है । आज तक तूने ज्ञान और आनन्द की खोज पर में ही की है, She t र पर्व २३
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy