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३१३ || नहीं हुआ । वे तो अपने में ही मग्न थे । वे अपने अनुरूप क्रिया कर रहे थे और स्थाणुरुद्र भी अपने अनुरूप श | क्रिया कर रहा था। उससे उन्हें क्या लेना-देना था ?
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इसप्रकार मुनिराज महावीर निरन्तर वीतरागता की वृद्धिंगत दशा को प्राप्त करते जा रहे थे । अन्तर्बाह्य घोर तपश्चरण करते हुए उन्हें बारह वर्ष व्यतीत हो गये। बयालीस वर्ष की अवस्था में एक दिन वे जृंभिका ग्राम के समीप ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नामक वन में पहुँचे। वहाँ पर शाल वृक्ष के नीचे रत्नों र्द्ध के समान दैदीप्यमान शिला पर प्रतिमायोग धारण कर विराजमान हो, ध्यानस्थ हो गये ।
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प्रत्येक द्रव्य की पूर्ण स्वतंत्र सत्ता है, उसका भला-बुरा परिणमन उसके आधीन है, उसमें पर का कोई भी हस्तक्षेप नहीं है । तथा जिसप्रकार आत्मा अपने स्वभाव का कर्ता-भोक्ता स्वतंत्ररूप से है, उसीप्रकार प्रत्येक आत्मा अपने विकार का कर्ता-भोक्ता भी स्वयं है । इस रहस्य को गहराई से जाननेवाले महावीर उससे सर्वथा निरीह ही रहे ।
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अन्तर में विद्यमान सूक्ष्म राग का भी अभाव कर उन्होंने पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त कर ली। पूर्ण वीतरागता प्राप्त होते ही अनन्तर वैशाख शुक्ल दशमी के दिन उन्हें पूर्णज्ञान (केवलज्ञान) भी प्राप्त हो गया ।
उसीसमय तीर्थंकर नामक महापुण्योदय से उन्हें तीर्थंकर पद की प्राप्ति हुई और वे तीर्थंकर भगवान महावीर के रूप में विख्यात हुए । सौधर्म इन्द्र को तत्काल विशेष चिह्नों से पता चला कि तीर्थंकर महावीर | को पूर्णज्ञान की प्राप्ति हो चुकी है। उसने तत्काल आकर बड़े ही उत्साह से केवलज्ञान-कल्याणक महोत्सव | किया और भगवान महावीर की पवित्र वाणी से सब लाभान्वित हो सकें, एतदर्थ कुबेर को आज्ञा दी कि शीघ्र ही समवशरण की रचना करो।
तीर्थंकर की धर्मसभा में राजा-रंक, गरीब-अमीर, गोरे-काले सब मानव एक साथ बैठकर धर्मश्रवण | करते हैं । उनकी धर्मसभा में प्रत्येक प्राणी को जाने का अधिकार है। छोटे-बड़े और जाति-पांति का कोई
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