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________________ REFFEE IFE 19 खिलाऊँगी क्या ? क्या मिट्टी के सकोरे में कोदों का भात जो मुझे खाने को मिलता है, वह खिलाऊँगी? | उसने तो पड़गाहन कर ही लिया और उनके योग्य अहार की समुचित व्यवस्था भी हो गई। यह सब कैसे हुआ सोचनेवाले सोचते ही रहे और वहाँ तो चन्दना के हाथ से प्रभु का आहार भी हो गया। प्रभु वन को वापिस चले गये। चन्दना की वन्दना सफल हो गई, उसके बन्धन कट गये। आगे चलकर यही चन्दना भगवान महावीर के समवशरण में दीक्षित हो आर्यिकाओं में श्रेष्ठ प्रमुख गणनी बनी। सम्पूर्ण जगत से सर्वथा निरीह वीतरागी संत मुनिराज वर्द्धमान विहार करते हुए उज्जैनी पहुँचे। वहाँ वे ध्यानस्थ हो गये। पाप-कला में अत्यन्त प्रवीण स्थाणुरुद्र ने वहाँ आकर उन पर घोर उपसर्ग किया। विद्या के बल से उसने अनेक भयंकर से भयंकरतम रूप बनाये और उन्हें विचलित करने का कई बार असफल प्रयास किया। उसने हिंसक पशुओं के, भीलों के, राक्षसों के रूप में अनेकानेक उपद्रव किये। दूसरों को डराने-धमकाने में ही वीरता को सार्थक समझनेवाले स्थाणुरुद्र ने अन्तत: अडिग महावीर के रूप में वीरता की साक्षात् मूर्ति के दर्शन किए। उसने स्पष्ट अनुभव किया कि वीरता निर्भयता और निश्चलता का नाम है। वीरता हिंसा की पर्याय नहीं, अहिंसा का स्वरूप है। उसके उपद्रवों का महावीर की साधना पर कोई असर ही न हुआ। - एक तो आत्म-साधनारत वीतरागी संतों के ज्ञान में अंतरोन्मुखी वृत्ति के कारण बाह्य अनुकूल-प्रतिकूल संयोग आते ही नहीं; यदि आते भी हैं तो उनके चित्त में कोई भंवर पैदा नहीं करते, मात्र ज्ञान का ज्ञेय बनकर रह जाते हैं; क्योंकि वे तो अपनी और पर की परिणति को जानते-देखते हुए प्रवर्तते हैं। मुनिराज महावीर की अडिग साधना, अनेक संकटों के बीच भी निर्विकार सौम्याकृति और वीतरागी मुद्रा देख स्थाणुरुद्र का क्रोध काफूर हो गया। वह भय-मिश्रित आश्चर्य से विह्वल हो उनकी स्तुति करने लगा, अपने किए पर पछताने लगा। 'न काहू से दोस्ती न काहू से वैर' के प्रतीक मुनिराज महावीर पर इस परिवर्तन का भी कोई असर || २३
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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