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अबंध-स्वभावी आत्मा का आश्रय लेकर संसार के सर्व-बन्धकों से मुक्त होने का निश्चय कर चुके थे। ___ एक दिन विचारमगन वर्द्धमान ने अपने सुदूर-पूर्व जीवन में झांकने का यत्न किया और उन्हें जातिस्मरण हो गया। उन्हें अपने अनेक पूर्व भव हस्तामलकवत् स्पष्ट दिखने लगे, उन्हें सब कुछ स्पष्ट हो गया। वे संसार से पूर्णत: विरक्त हो गये। उन्होंने घर-बार छोड़ नग्न दिगम्बर हो आत्माराधना का दृढ़ निश्चय कर लिया।
वे किन्हीं दूसरों के कारण विरक्त नहीं हुए थे, उनकी विरक्ति उनके अन्तर की सहज वीतराग-परिणति का परिणाम थी। उस सीमा का राग रहा ही नहीं था कि जिससे वे किसी से बंधे रह सकते थे।
वस्तुत: वे साधु बने नहीं थे; बल्कि उनमें साधुता प्रगट हो चुकी थी। उनका चित्त जगत के प्रति सजग न होकर आत्मनिष्ठ हो गया था। देश-काल की परिस्थितियों के कारण उन्होंने अपनी वासनाओं का दमन नहीं किया था; क्योंकि वासनाएँ स्वयं अस्त हो चुकी थीं। परिस्थितिजन्य विराग परिस्थितियों की समाप्ति पर समाप्त हो जाता है।
उनके इस निश्चय को जानकर लोकान्तिक देवों ने आकर उनके इस कार्य की प्रशंसा की, उनकी वंदना की, भक्ति की। उनके दीक्षा (तप) कल्याणक के महान उत्सव की व्यवस्था भी इन्द्र ने आकर की।
प्रभु की पालकी कौन उठाये, इस संबंध में मानवों और देवों में मतभेद हो गया।
देवों में दिव्यशक्ति होने पर भी विजय मानवों की हुई; क्योंकि यह प्रतियोगिता देहशक्ति की न होकर, आत्मबल की थी; जो प्रभु के साथ ही दीक्षित हो, वही प्रभु की पालकी उठाये । इस निर्णय में देव परास्त हो गये और उन्हें उस समय अपने इन्द्रत्व और देवत्व की तुच्छता मानव भव के सामने स्पष्ट हुई। सर्वप्रथम प्रभु की पालकी मानवों ने उठाई, बाद में देवों ने। ___ इसप्रकार प्रभु तीस वर्षीय भरे यौवन में मगसिर कृष्ण दशमी के दिन स्वयं दीक्षित हो गये। उन्होंने सर्वथा मौन धारण कर लिया था, उनको बोलने का भाव ही न रहा था।
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