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माँ त्रिशला ने उगते हुए सूर्य - सा तप्त स्वर्णप्रभा से युक्त तेजस्वी बालक को जन्म दिया । नित्यवृद्धिंगत देख | उनका सार्थक नाम वर्द्धमान रखा गया। उनके जन्म का उत्सव परिजनों-पुरजनों के साथ-साथ इन्द्रों और ला देवों ने भी सिद्धार्थ के दरवाजे पर आकर किया, जिसे जन्म-कल्याणक महोत्सव कहते हैं । इन्द्र उन्हें ऐरावत हाथी पर बिठाकर सुमेरु पर्वत पर ले गया। वहाँ पाण्डुक शिला पर विराजमान कर क्षीरसागर के जल में उनका जन्माभिषेक किया।
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एक बार संजय और विजय नाम के दो चारण ऋद्धिधारी मुनियों की शंका का समाधान वर्द्धमान को दूर से देखने मात्र से हो गया तो उन्होंने होनहार बालक वर्द्धमान को 'सन्मति' नाम से संबोधित किया।
जब इसकी चर्चा वर्द्धमान से उनके साथियों ने की तो उन्होंने सहज ही कहा कि “सर्वसमाधानकारक
तो अपना आत्मा ही है जो स्वयं ज्ञानरूप है। दूसरों को देखना, सुनना आदि तो निमित्त मात्र है । मुनिराजों | की शंकाओं का समाधान उनके अंतर से स्वयं हुआ, वे उससमय मुझे देख रहे थे; अतः मुझे देखने पर आरोप आ गया, यदि सुन रहे होते तो सुनने पर आ जाता। ज्ञान तो अन्तर में आता है, किसी पर - पदार्थ में से नहीं ।
दूसरी बात यह भी है कि मैं यदि 'सन्मति” हूँ तो अपनी सद्बुद्धि के कारण, तत्त्वार्थों के सही निर्णय करने के कारण हूँ, न कि मुनिराजों की शंका के समाधान के कारण । यदि किसी जड़ पदार्थ को देखने से किसी को ज्ञान हो जावे तो क्या वह जड़ पदार्थ भी 'सन्मति' कहा जायेगा ?"
उनके अपूर्व रूप सौन्दर्य एवं असाधारण बल-विक्रम से प्रभावित हो, अनेक राजागण अप्सराओं के | सौन्दर्य को लज्जित कर देनेवाली अपनी-अपनी कन्याओं की शादी उनसे करने के प्रस्ताव को लेकर राजा सिद्धार्थ के पास आए; पर अनेक राज- कन्याओं के हृदय में वास करनेवाले महावीर वर्द्धमान का मन उन | कन्याओं में न था । माता-पिता ने भी उनसे शादी करने का बहुत आग्रह किया, पर वे तो इन्द्रिय-निग्रह का निश्चय कर चुके थे । चारों ओर से उन्हें गृहस्थी के बंधन में बांधने के अनेक प्रयत्न किये गये पर वे
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