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यह बात भी स्वयं समाप्त हो जाती है कि 'पंचमकाल में तो मुक्ति होती ही नहीं; अत: अभी तो शुभभाव करके स्वर्गादि प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए।' भले ही मुक्ति इस काल में, इस भव में न हो; पर शेर के समान आत्मानुभूति प्राप्त कर मुक्ति का सिलसिला आरम्भ तो हो ही सकता है। इसमें प्रमाद क्यों ?
आज से लगभग छब्बीस सौ वर्ष पूर्व इसी भारतवर्ष में 'वैशाली' नगरी गणतंत्र शासन की केन्द्र बनी हुई थी। गणतंत्र के अध्यक्ष थे राजा चेटक । उसी के अन्तर्गत कुण्डलपुर (कुण्डग्राम) नामक अत्यन्त मनोहर नगर था। प्रसिद्ध राजनेता लिच्छवि राजा सिद्धार्थ उसके सुयोग्य शासक थे। राजा सिद्धार्थ की पत्नी का नाम त्रिशला था। माँ त्रिशला ने राजा सिद्धार्थ को जब उक्त स्वप्न सुनाए और उनका फल जानना चाहा, तब निमित्त-शास्त्र के वेत्ता सिद्धार्थ पुलकित हो उठे। शुभ स्वप्नों का शुभतम फल उनकी वाणी से पहले उनकी प्रफुल्लित मुखाकृति ने कह दिया। उन्होंने बताया कि तुम्हारे उदर से तीन लोक के हृदयों पर शासन करनेवाले धर्मतीर्थ के प्रवर्तक भावी तीर्थंकर बालक का जन्म होगा।
ये स्वप्न बताते हैं कि तुम्हारा पुत्र गज-सा बलिष्ठ, वृषभ-सा कर्मठ, सिंह-सा प्रतापी, अनन्त चतुष्टय लक्ष्मी का धारी, पुष्पों-सा कोमल, चन्द्रमा-सा शीतल, सूर्य-सा अज्ञानांधकार नाशक, स्वर्णकलश-सा मंगलमय, जलाशय में क्रीड़ारत मीन-युगल के समान ज्ञानानन्द सागर में मग्न रहनेवाला, निर्मल समकित ज्ञान से भरपूर, सागर-सा गंभीर, तीन लोक दिलों पर शासन करनेवाला, सोलहवें स्वर्ग से आनेवाला, अवधिज्ञानी का धनी, रत्नों की राशि-सा दैदीप्यमान एवं अग्निशिखा-सा जाज्वल्यमान होगा। शुभ स्वप्नों का शुभतम फल जानकर महारानी त्रिशला अत्यन्त प्रसन्न हुईं।
आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन सोलह कारण भावनायें भाकर तीर्थंकर प्रकृति बांधनेवाले राजा नन्द का जीव सोलहवें स्वर्ग से चयकर प्रियकारिणी माँ त्रिशला के गर्भ में आया। माता-पिता के उत्साह, प्रसन्नता और धन्य-धान्यादि वैभव के साथ-साथ बालक भी माँ के गर्भ में नित्य बढ़ने लगा। पुरजनों और परिजनों की आनन्दमय चिर-प्रतीक्षा के बाद चैत्र शुक्ला त्रयोदशी का शुभ दिन आया। ॥ २३