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________________ FFFF TV | हो गये। जगत का उद्धार करने में सर्वोत्कृष्ट निमित्तभूत तीर्थंकर प्रकृति नामक महापुण्य के बंध करने में कारणरूप सोलह कारण भावनाओं का चिंतवन उन्हें सहज ही होने लगा और उन्होंने इसी भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया, जिसके परिणामस्वरूप ही वे आगे जाकर अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर हुए। इसप्रकार हम देखते हैं कि तीर्थंकर भगवान महावीर ने अपने पूर्व भवों में अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। जहाँ एक ओर पुण्य के परम-प्रकर्ष को पाकर नारायण, चक्रवर्ती जैसे पदों को प्राप्त किया और कई बार स्वर्ग-सम्पदायें भोगी, वहीं दूसरी ओर पाप की प्रकर्षता में सप्तम नरक में भयंकर दुःख भी भोगे; पर पुण्य-पाप दोनों में कहीं शान्ति का अनुभव नहीं हुआ, संसार परिभ्रमण ही हुआ। | शुभाशुभभावरूप पुण्य-पाप फल चतुर्गति भ्रमण ही है । शुभाशुभ भाव के अभावरूप जो वीतरागभाव | है, वही धर्म है; वही सुख का कारण है। वीतरागभाव की उत्पत्ति आत्मानुभूतिपूर्वक होती है। जब शेर की पर्याय में आत्मानुभूति प्राप्त की तभी वे संसार के किनारे लगे। अत: प्रत्येक आत्मार्थी को वीतरागभाव की प्राप्ति के लिए आत्मानुभूति अवश्य प्राप्त करना चाहिए। यही एकमात्र सार है। तीर्थंकर भगवान महावीर के पूर्व भवों की चर्चा से जैनदर्शन की यह विशेषता विशेष रूप से उजागर होती है कि जैनदर्शन का मार्ग नर से नारायण बनने तक का ही नहीं, अपितु आत्मा से परमात्मा बनने का है, शेर से सन्मति बनने का है, पशु से परमेश्वर बनने का है। पूर्व भवों की चर्चा हमें आश्वस्त करती है कि अपनी वर्तमान दशा मात्र को देखकर किसी भी प्रकार घबड़ाने की आवश्यकता नहीं है। जब भगवान महावीर की आत्मा शेर जैसी पर्याय में आत्मानुभूति प्राप्त कर सकती है तो हम तो मनुष्य हैं, हमें आत्मानुभूति क्यों प्राप्त नहीं हो सकती? आत्मानुभूति प्राप्त कर शेर भी भगवान बन गया, चाहे दस भव बाद ही सही; तो हम क्यों नहीं बन सकते ? यदि इसमें दस| पाँच भव भी लग जाएं तो इस अनादि-अनन्त संसार में दस-पाँच भव क्या कीमत रखते हैं? 4 Ftos
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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