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________________ श ३०५ तूने इस मृग को मार डाला है, उसीप्रकार पंचेन्द्रिय के भोगों की निराबाध प्राप्ति के लिए तूने अपने पूर्व भवों में बहुत हिंसा और क्रूरता की है। त्रिपृष्ठ नारायण के भव में तूने क्या-क्या भोग नहीं भोगे और क्याक्या पाप नहीं किये ? पर भोगाकांक्षा तो समाप्त नहीं हुई । परिणामस्वरूप सातवें नरक में गया और भयंकर दुःख भोगे । वहाँ से निकलकर शेर हुआ, वहाँ भी यही हालत रही । विचार कर! जरा तू अपने पूर्व भवों का विचार कर !!" ला का पु मुनिराज का उपदेश सुनकर उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया, उससे उसे पूर्व भवों का स्मरण हो गया, फिर | उसने पश्चाताप के अश्रु बहाते हुए अपने पूर्वकृत पापों का प्रक्षालन किया और आत्मानुभवपूर्वक मुनिराज ष उ त्त | के द्वारा दिए गए ग्रहीत व्रतों का जीवनपर्यन्त आदरपूर्वक पालन किया। अन्त में समाधिमरण पूर्वक मृत्यु | को प्राप्त होकर वह सिंह भगवान महावीर से नौ भव पूर्व अर्थात् दसवें भव में सौधर्म नामक प्रथम स्वर्ग में सिंहकेतु नामक देव हुआ । रु रा र्द्ध “पर्याय की योग्यता का परिपाक एवं काललब्धि की प्राप्ति के साथ अनुकूल निमित्त के सहचर होने का ऐसा उदाहरण अन्यत्र देखने को प्राप्त नहीं होगा। ऊपर से देखने पर यहाँ ऐसा लगता है कि चारण ऋद्धिधारी मुनिराजों के उपदेश से शेर को सद्धर्म की प्राप्ति हो गई; किन्तु काललब्धि के परिपाक, भली | होनहार, प्रतिबंधक कर्म का आवश्यकतानुसार अभाव तथा शेर द्वारा किये गये अन्तरोन्मुखीवृत्ति के अपूर्व पुरुषार्थ की ओर जगत का ध्यान सहज ही नहीं जाता।” अतः सुखाभिलाषी को सर्वप्रथम अपने को पहिचानना चाहिए, अपने को जानना चाहिए और अपने में ही जम जाना चाहिए, रम जाना चाहिए । सुख पाने के लिए अन्यत्र भटकना आवश्यक नहीं है; क्योंकि अपना सुख अपने में ही है, पर में नहीं, परमेश्वर में भी नहीं; अत: सुखार्थी का परमेश्वर की ओर भी किसी आशा-आकांक्षा में झांकना निरर्थक | है । तेरा प्रभु तू स्वयं है। तू स्वयं ही अनन्त सुख का भण्डार है, सुख स्वरूप है, सुख ही है तथा पंचेन्द्रिय ती र्थं क shoom र म र पर्व २३
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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