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________________ ३०४ श ला का पु रु ष pm IF 59 उ भगवान महावीर का जीव सम्राट त्रिपृष्ठ नारायण विशाल विभूति का अधिपति था। उसके देवांगनाओं | के समान सोलह हजार रानियाँ थीं। पूर्व पुण्य के प्रताप से सर्वप्रकार लौकिक अनुकूलता पाकर भी उसने आत्महितकारी धर्म की आराधना नहीं की। समस्त जीवन अनुशासन-प्रशासन, राज्यव्यवस्था और भोगों र्द्ध में ही गंवा दिया । अन्त मे मरकर सातवें नरक का नारकी हुआ। भोगमय जीवन का परिणाम इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता था ? त्त विजय प्रथम 'बलभद्र' थे और त्रिपृष्ठ प्रथम 'नारायण' । यह ग्यारहवें तीर्थंकर भगवान श्रेयांसनाथ का समय था। उससमय विजयार्द्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के अलकापुर नगर में मयूरग्रीव नामक विद्याधरों का राजा राज्य करता था। उनकी प्रिय-पत्नी का नाम नीलांजना था। विशाखानन्द का जीवन अपने पाप कर्मों के फलस्वरूप अनेक कुयोनियों में परिभ्रमण करता हुआ पुण्य-योग से उनके अश्वग्रीव नामक पराक्रमी पुत्र हुआ। वह प्रथम 'प्रतिनारायण' था । वह तीन खण्ड पृथ्वी को जीतकर 'अर्द्ध चक्रवर्ती' हो गया था । त्रिपृष्ठ नारायण और अश्वग्रीव प्रतिनारायण में परस्पर भयंकर युद्ध हुआ और निदान के अनुसार राजकुमार त्रिपृष्ठ अश्वग्रीव को मारकर अर्द्धचक्रवर्ती सम्राट हो गया । रा भगवान महावीर का जीव बारह भव पूर्व सातवें नरक से निकलकर वह गंगा के किनारे सिंहगिर नामक पर्वत पर अत्यन्त क्रूर परिणामी सिंह हुआ। क्रूरता में ही जीवन बिताकर मरा और ग्यारहवें भव में प्रथम | नरक में नारकी हुआ। वहाँ से निकलकर पुन: हिमवान पर्वत के शिखर पर दैदीप्यमान केसर से सुशोभित सिंह हुआ । यहाँ से उसके आत्मा का सुधार आरंभ होता है । वह भयंकराकृति मृगराज अत्यन्त क्रूर एवं महाप्रतापी था। एक बार वह मृग को मारकर उसे विदारण कर खा रहा था। उसी समय दो अत्यन्त शान्त, परम दयावान, चारणऋद्धि के धारी मुनिराज आकाश मार्ग से उतरे और मृगराज को मृदुवाणी में इसप्रकार संबोधित करने लगे - "हे मृगराज! आत्मा का अनादर कर तूने आज तक अनन्त दुःख उठाये हैं। क्षुद्र स्वार्थ के लिए जिसप्रकार ती र्थं क र म हा वी र पर्व २३
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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