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उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। उनसे धर्म श्रवण कर मद्य-मांसादि का त्याग किया। जीवनपर्यन्त आदर | सहित व्रतों का निर्वाह करते हुए मरकर वह भीलराज सौधर्म नामक प्रथम स्वर्ग में देव हुआ। __वहाँ से आकर वह प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के बड़े पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के यहाँ मारीचि नामक पुत्र हुआ। उसने अपने पितामह ऋषभदेव के साथ ही दिगम्बरी दीक्षा धारण की; किन्तु ऋषभदेव के साथ दीक्षित कच्छादि चार हजार राजाओं के समान मुक्तिमार्ग से अपरिचित होने से, वह भी भ्रष्ट हो गया। उसने स्वतंत्र मत स्थापित किया। वह परिव्राजक का वेष धारण कर ऋषभदेव के समान मत-प्रवर्तक बनने का प्रयत्न करने लगा।
यद्यपि उसने मिथ्यात्व नामक महापाप का सेवन, प्रचार व प्रसार कर अपना भव भ्रमण बढ़ाया; तथापि शुभभावपूर्वक मरण कर वह ब्रह्म नामक पाँचवें स्वर्ग में देव हुआ।
आयु की समाप्ति पर वहाँ से चयकर वह साकेतनगर में कपिल नामक ब्राह्मण के यहाँ जटिल पुत्र हुआ। वहाँ भी पूर्व-संस्कारवश परिव्राजक साधु हुआ और मरकर प्रथम स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ से आकर भारद्वाज ब्राह्मण के यहाँ पुष्पमित्र नामक पुत्र हुआ। वहाँ भी वह स्थिति रही और मरकर प्रथम स्वर्ग में देव हुआ।
उसके बाद क्रमशः अग्निसह ब्राह्मण, सनत्कुमार नामक तीसरे स्वर्ग का देव, अग्निमित्र ब्राह्मण, माहेन्द्र नामक चतुर्थ स्वर्ग का देव, भारद्वाज ब्राह्मण, चतुर्थ माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ।
उक्त सभी भवों में उसकी पूर्ववत् स्थिति रही। मिथ्यात्व का सेवन व प्रसार करते हुए भी शुभभावों में रहा; अत: स्वर्गादिक की लौकिक अनुकूलता प्राप्त होती रही। मिथ्यात्व के सेवन में शुभभाव में रहने का प्रयत्न करते भी चिरकालतक ऊँची गतियों में स्थिति भी नहीं रह सकती है; अत: नीच योनियों में जा पड़ा और उसने त्रस-स्थावर की निम्नतम योनियों के असंख्य भव धारण किए। असंख्य बार जन्मा मरा।
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