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जो निज दर्शन ज्ञान चरित अरु, वीर्य गुणों से हैं महावीर। अपनी अनन्त शक्तियों द्वारा, जो कहलाते हैं अतिवीर ।। जिसके दिव्य ज्ञान दर्पण में, नित्य झलकते लोकालोक।
दिव्यध्वनि की दिव्यज्योति से, शिवपथ पर करते आलोक।। भगवान महावीर स्वामी के तीर्थंकर भगवान बनने की प्रक्रिया एक भव में नहीं, अनेक पूर्वभवों में सम्पन्न हुई। आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया समझने के लिए हमें उनके अनेक पूर्व भवों का अध्ययन करना आवश्यक है। साधारण जीव न केवल नर से नारायण, बल्कि पशु से परमात्मा कैसे बन सकते हैं; कैसे बनते हैं? एतदर्थ हम उनकी अनेक पूर्वभवों की जीवनयात्रा को संक्षेप में समझने का प्रयास करेंगे।
तीर्थंकर भगवान महावीर के पूर्व भवों का परिचय कराते हुए आचार्य गुणभद्र उत्तरपुराण में लिखते हैं कि - "जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर किनारे पुष्कलावती देश में एक पुंडरीकिनी नाम की नगरी थी। उसके पास एक मधुक नामक वन था, जिसमें भीलों का राजा पुरुरुवा रहता था। उसकी पत्नी का नाम कालिका था।
उसी वन में एक सागरसेन नामक महान तपस्वी नग्न-दिगम्बर मुनिराज विचरण कर रहे थे। उनको भ्रमवश मृग समझकर मारने के लिए उस भीलराज ने ज्योंही धनुष पर बाण चढ़ाया, त्योंही उसकी पत्नी ने हाथ पकड़कर रोकते हुए मृदुल शब्दों में कहा कि “क्या कर रहे हो ? वह मृग नहीं, कोई वन-देवता विहार कर रहे हैं।" मुनि हत्या के महादोष से बचकर वे दोनों पति-पत्नी मुनिराज के पास दर्शनार्थ गये।२३
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