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| को यह संदेश दे रहे थे कि पुण्यफल से प्राप्त यह सिंहासन आत्मा के लिए अपद है। स्फटिक के तीन छत्र प्रभु के रत्नत्रय के प्रतीक थे। प्रभु के मुख का प्रभामंडल भले ही सूर्य-चन्द्र से अधिक दैदीप्यमान था, परन्तु उनके केवलज्ञान के तेज का तो सम्यग्दृष्टियों को ही अनुभव होता था। | भगवान के समवशरण में दसप्रकार की भोगसामग्री प्रदान करनेवाले कल्पवृक्षों को देखकर सम्यग्दृष्टि जीव प्रभावित नहीं होते थे; क्योंकि यह कल्पवृक्ष तो मात्र भोग सामग्री देनेवाले होते हैं, सर्वज्ञदेव तो स्वयं ऐसे कल्पवृक्ष हैं कि जिनसे सम्यग्दर्शनादि चैतन्य रत्नों की प्राप्ति होती है।
श्री पार्श्वनाथ तीर्थंकर ने ७० वर्ष तक देश-देशान्तर में विहार किया और अन्त में सम्मेदगिरि पर पधारे। अब उन्हें मोक्ष जाने में एक मास शेष था, इसलिये उनकी वाणी एवं विहारादि की क्रियाएँ थम गई। पार्श्वप्रभु सम्मेदशिखर की सर्वोच्च टोंक पर ध्यानस्थ खड़े थे। वहाँ से शरीर छोड़कर अशरीरी हुए। इन्द्रों ने प्रभु का मोक्ष कल्याणक मनाया। भगवान श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन मोक्ष पधारे थे इसलिये उसे 'मोक्ष सप्तमी' कहा जाता है।
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जहाँ स्व-पर के भेदज्ञान से शून्य अज्ञानी मरणकाल में अत्यन्त संक्लेशमय परिणामों से नरकादि गतियों में जाकर असीम दुःख भोगता है, वहीं ज्ञानी मरणकाल में वस्तुस्वरूप के चिन्तन से साम्यभावपूर्वक देह विसर्जित करके मरण को 'समाधिमरण' में एवं मृत्यु को 'महोत्सव' में परिणत कर उच्चगति प्राप्त करता है।
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