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आत्मध्यान में लीन थे। वे तो दोनों से परे अपनी चैतन्यसाधना में ही तत्पर हैं। परिणामों को क्षणभर में बदला जा सकता है। क्रोध कहीं आत्मा का स्वभाव नहीं है कि वह नित्य स्थिर रहे। उस क्रोध से भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्मा है। उपसर्ग के समय मुनिराज पार्श्वनाथ ने भी कमठ के जीव पर क्रोध नहीं किया।
धरणेन्द्र ने कहा - "केवलज्ञान की महिमा अद्भुत है। हे देव! आप समर्थ हों, हम आपकी रक्षा करनेवाले कौन होते हैं? प्रभो आपके प्रताप से हमें धर्म प्राप्त हुआ और आपने संसार के घोर दुःखों से हमारी रक्षा की है। प्रभु ! आपके सान्निध्य की महिमा अपरम्पार है। जो भी आपकी शरण में आता है, वह कभी न कभी परमात्मा बन जाता है। इसप्रकार स्तुति की। भगवान को केवलज्ञान होने पर इन्द्रों ने आकर भगवान की पूजा स्तुति के पश्चात् आश्चर्यकारी दिव्य समवशरण की रचना की। जीवों के समूह प्रभु का उपदेश सुनने के लिए आने लगे।
यह सब आश्चर्यजनक घटना देखकर संवरदेव के भाव भी बदल गये, केवली प्रभु की दिव्य महिमा देखकर उसे भी श्रद्धा जाग्रत हुई। क्रोध एकदम शांत हो गया और पश्चाताप से बारम्बार प्रभु के समक्ष क्षमा याचना करने लगा - "हे देव! मुझे क्षमा करो, मैंने अकारण ही आपके ऊपर महान उपसर्ग किया, तथापि आपने किंचित् मात्र क्रोध नहीं किया। कहाँ आपकी महानता और कहाँ मेरी अज्ञानता । इन्द्र भी भक्तिपूर्वक आपकी सेवा करते हैं। इतने समर्थ होने पर भी आपने मुझ पर क्रोध नहीं किया। मैंने अज्ञानपूर्वक क्रोध करके भव-भव में आपके ऊपर इकतरफा उपसर्ग किये, जिससे मैं ही महान दुःखी हुआ और नरकादि की घोर यातनाएँ सहन की। प्रभो! अन्त में क्रोध पर क्षमा की ही विजय हुई। अब मैंने क्षमाधर्म की महिमा को जाना। मेरा आत्मा उपयोग स्वरूप है, वह इस क्रोध से भिन्न है - ऐसा आपके प्रताप से समझा हूँ। इसप्रकार कमठ का जीव धर्म को प्राप्त हुआ और भगवान की भक्ति करने लगा।
समवशरण में विराजमान तीर्थंकर भगवान की शोभा आश्चर्यकारी थी। वहाँ दिव्य सिंहासन होने पर भी भगवान उसका स्पर्श किये बिना अधर-आकाश में अंतरिक्ष विराजते थे। अन्तरीक्ष बैठे भगवान जगत || २२
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