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॥ अयोध्यानगरी का तथा पूर्वकाल में हुए तीर्थंकरों का वर्णन सुनकर पार्श्वकुमार गंभीर विचारों में डूब || गये। उसी समय उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हुआ और वे संसार से विरक्त हो गये। उन्होंने संकल्प किया कि ला || - “मुझे जगत के सामान्य मनुष्यों की भाँति संयम रहित काल नहीं गँवाना है। ऋषभादि जिनवर जिस मार्ग
| पर चले उसी मार्ग पर मुझे जाना है, इसलिये अब आज ही मैं दीक्षा लूँगा और अपनी आत्म साधना पूर्ण | करूँगा।" इसप्रकार भव से विमुख और मोक्ष के सन्मुख हुए पार्श्वकुमार वैराग्य भावना भाने लगे। दीक्षा का उत्सव करने हेतु इन्द्रादि आ पहुँचे, लौकान्तिक देव भी आये और उन्होंने वैरागी पार्श्वनाथ के वैराग्य का अनुमोदन किया। | दीक्षा के लिये तत्पर हुए पार्श्वकुमार ने माता के पास जाकर कहा - हे माता! अब मैं चारित्र साधना
द्वारा केवलज्ञान प्रगट करने जाता हूँ उसीप्रकार पिताजी की आज्ञा लेकर पार्श्वकुमार 'विमला' नामक | शिबिका में आरूढ़ होकर वन में गये और स्वयं दीक्षा लेकर आत्मध्यान करने लगे। मुनिराज पार्श्वनाथ | ने तीस वर्ष की आयु में अपने जन्म के दिन ही दीक्षा ग्रहण की, उनके साथ अन्य तीन सौ राजाओं ने जिनदीक्षा ले ली। दिगम्बर मुद्राधारी उन मुनिराज के वस्त्र तो नहीं थे और अंतर में मोह भी नहीं था। निर्विकल्प शुद्धोपयोग रूप सहज दशा से वे महात्मा शोभायमान थे।
प्रभु को ध्यान में तुरन्त ही सातवाँ गुणस्थान प्रगट हुआ और मनःपर्यय ज्ञान प्रगट हो गया। वे पार्श्वमुनिराज आत्मा का निजकार्य साधने लगे। सर्वप्रथम मुल्मखेटनगर के ब्रह्मदत्त राजा ने उन मुनिराज को आहारदान दिया और धन्य हो गये।
शरीर और आत्मा की भिन्नता जानने वाले तथा शत्रु एवं मित्र में समभाव रखनेवाले वे पार्श्व मुनिराज अंतर में बारम्बार शुद्धोपयोग द्वारा निजरूप को ध्याते थे और अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव करते थे।
जब एक ओर संवरदेव भयंकर द्वेषपूर्वक उपसर्ग कर रहा था और दूसरी ओर धरणेन्द्र तथा पद्मावती भक्ति-भावपूर्वक प्रभु की सेवा-सुश्रूषा में लगे थे तब मुनिराज पार्श्वनाथ दोनों के प्रति समभाव रखकर |
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