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________________ CREE F IFE 19 २९७|| की शरण में आकर सच्चा धर्म अंगीकार किया। दोनों सर्पो ने बालक पार्श्वकुमार के दर्शन करके शांति प्राप्त की और उनके श्रीमुख से वीतरागधर्म का उपदेश सुनकर धन्य हो गये! पार्श्वकुमार कहने लगे - “हे सर्पराज! भले ही कुल्हाड़ी से तुम्हारे शरीर कट गये हैं परन्तु तुम क्रोध नहीं करना; क्योंकि पूर्वभव में क्रोध करने के कारण तुम्हें यह सर्प का भव मिला है, किन्तु अब क्रोध का || त्याग करके क्षमाभाव धारण करना, और पंचपरमेष्ठी भगवान की शरण लेना। ऐसा कहकर पार्श्वनाथ प्रभु | ने उन्हें धर्म श्रवण कराया। दोनों नाग-नागिन शांतिपूर्वक सुन रहे थे और सोच रहे थे कि - हम जैसे विषैले जीवों को भी पार्श्व ने करुणापूर्वक सच्चा धर्म समझाया और हमारा कल्याण किया।" | नाग-नागिन शान्त हो गये और प्रभु के चरणों में शरीर त्यागकर भवनवासी देवों में धरणेन्द्र तथा | पद्मावती हुये। अवधिज्ञान से भगवान का उपकार जानकर वे भक्ति करने लगे कि “धन्य हैं पार्श्वप्रभु! जिन्होंने हमें सर्प से देव बनाया और संसार से मुक्त होने के लिये जैनधर्म का मार्ग बतलाया।" | देखो तो सही, क्षमावन्त आत्मा के संसर्ग से नाग जैसे विषधर जीव भी क्रोध छोड़कर क्षमावान बन गये, और शरीर के टुकड़े कर देने वाले के प्रति भी क्रोध न करके क्षमाभाव से शरीर त्यागकर देव हुए। पर वह तापस फिर भी मिथ्या मान्यता नहीं त्याग पाया, इसीकारण निचली जाति का देव हुआ। एक बार पौष कृष्णा एकादशी के दिन पार्श्वकुमार राजसभा में बैठे थे और उनका जन्मदिवस मनाया || जा रहा था, देश-देशान्तर के राजाओं की ओर से उत्तमोत्तम वस्तुओं की भेंट आ रही थी। अयोध्या का राजदूत भी भेंट लेकर आया। पार्श्वप्रभु के दर्शन से उसे आश्चर्य हुआ। विनयपूर्वक स्तुति करके वह कहने लगा - "हे प्रभो! हमारी अयोध्यानगरी के महाराजा जयसेन को आपके प्रति प्रगाढ़ स्नेह है, इसलिये यह उत्तम रत्न एवं हाथी आदि वस्तुएँ आपको भेंट स्वरूप भेजी हैं।" पार्श्वकुमार ने प्रसन्नदृष्टि से राजदूत की ओर देखा और अयोध्या की कुशलक्षेम पूछी। राजदूत ने कहा - "महाराज! हमारी अयोध्यानगरी तो तीर्थंकरों की खान है, जिस पुण्यभूमि में तीर्थंकर | उत्पन्न होते हों वहाँ की कुशलता का क्या कहना ?" 4 NFF २२
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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