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२९६|| "तू मुझे उपदेश देनेवाला कौन? यह राजकुमार तो अभी छोटा बच्चा है, इसे मेरे तप का क्या पता? ऐसा ||
कहकर वह लक्कड़ों को अग्नि में डालने लगा। पार्श्वकुमार हाथ में लक्कड़ उठाकर बोले - 'ठहरो, ठहरो; इस लकड़ी को अग्नि में मत डालो!" तापस क्रोधित होकर बोला - "तू मुझे रोकने वाला कौन?"
बालक पार्श्वकुमार ने कहा “आप जो लकड़ी काटकर अग्नि में होमना चाहते हैं उसमें नाग-नागिन का जोड़ा बैठा है, वे अग्नि में जल जायेंगे। | पार्श्वकुमार की बात सुनकर भी उस तपस्वी को विश्वास नहीं हुआ, बोला - तू कौन ऐसा त्रिकालज्ञानी
हो गया जो तुझे इस लकड़ी में सर्प बैठे दिख रहे हैं? व्यर्थ ही होम में विघ्न करता है! तब सुभोमकुमार | ने कहा- “हे तापस ! आपको विश्वास न हो तो लकड़ी चीरकर देख लीजिये।" | महिपाल तापस ने क्रोधपूर्वक उस लकड़ी को चीरा तो भीतर दो तड़पते हुए सर्प निकले। उनके शरीर
के दो टुकड़े हो गये थे और वेदना से तड़प रहे थे। वे दोनों नाग-नागिन पार्श्वप्रभु की ओर टकटकी लगाकर देख रहे थे, मानो दुःख से छुड़ाने की प्रार्थना कर रहे हों।
सर्पयुगल को देखकर लोग चकित रह गये। महिपाल तापस भी क्षणभर स्तब्ध रह गया।
प्रभु ने सर्पयुगल पर दृष्टि डाली, जिससे दोनों को अत्यन्त शांति का अनुभव हुआ। पार्श्वकुमार गंभीर स्वर में बोले - “जीवों का अज्ञान तो देखो! जहाँ ऐसी जीव हिंसा हो वहाँ धर्म कैसे हो सकता है।"
वीतराग धर्म का उपदेश सुनकर भी कमठ के जीव तापस ने सत्यधर्म अंगीकार नहीं किया । जीव स्वयं भावशुद्धि न करे, तो तीर्थंकर भी उसका क्या कर सकते हैं? यद्यपि उसे आभास तो हो रहा था कि इन उत्तम पुरुषों के समक्ष में कोई भूल कर रहा हूँ, किन्तु क्रोध के कारण वह वीतरागधर्म को स्वीकार नहीं कर सका । अभी धर्म की प्राप्ति होने में उसे कुछ समय की देर थी। अन्त में तो उसने इन्हीं भगवान पार्श्वनाथ ॥ २२॥
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