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| गर्भकल्याणक उत्सव करके उनकी स्तुति की। छप्पन कुमारी देवियाँ माता की सेवा करने लगीं। वे बारम्बार | तीर्थंकर के गुणगान करके माताजी के साथ आनन्ददायक चर्चा करती थीं - | पौष कृष्णा एकादशी के शुभदिन तेईसवें तीर्थंकर का अवतार हुआ। तीनों लोक आनन्दित हो गये। || स्वर्ग में भी अपने आप दिव्य वाद्य बजने लगे। इन्द्र ने जान लिया कि भरतक्षेत्र में तेईसवें तीर्थंकर का अवतार हुआ है, इसलिये तुरन्त इन्द्रासन से नीचे उतरकर भक्तिपूर्वक उन बाल तीर्थंकर को नमस्कार किया
और ऐरावत हाथी पर बैठकर जन्मोत्सव मनाने मेरु पर्वत पर जा पहुँचे। वहाँ प्रभु का जन्माभिषेक किया। इन्द्र-इन्द्राणी आनन्द से नाच उठे। उन्होंने प्रभु का नाम 'पार्श्वकुमार' रखा। पार्श्वकुमार के जन्माभिषेक के समय आकाश से पुष्पवृष्टि होने लगी। आश्चर्य यह है कि आकाश में कहीं भी पुष्पवृक्ष न होने पर भी पुष्प वर्षा हो रही थी।
मेरुपर्वत पर पार्श्वकुमार का जन्माभिषेक करके स्तुति करते हुए इन्द्र कहते हैं - "हे प्रभो! आप तो पवित्र ही हो, आपका न्हवन करने के बहाने वास्तव में तो हमने अपने ही पापों को धो डाला है।" इन्द्रानी कहती है - "हे प्रभो! आपको रत्नाभूषणों से अलंकृत करते हुए ऐसा अनुभव होता है मानों मैं अपने ही आत्मा को धर्मरत्नों से अलंकृत कर रही हूँ।" ऐसा कहकर इन्द्रानी ने बाल तीर्थंकर को स्वर्ग से लाये हुए वस्त्राभूषण पहिनाए और रत्न का तिलक लगाया। इसप्रकार पार्श्वकुमार का जन्माभिषेक करके तथा देवलोक के दिव्य वस्त्राभूषण पहिनाकर प्रभु के जन्मोत्सव की शोभायात्रा बनारस नगरी लौट आयी और वामादेवी माता को उनका पुत्र सौंपकर इन्द्र-इन्द्रानी ने कहा - "हे माता ! आप जगत की माता हैं, आपने जगत को यह ज्ञानप्रकाश दीपक प्रदान किया है, आपका यह पुत्र तीन लोक का नाथ है।"
इसप्रकार पारसकुमार का जन्मोत्सव मनाकर माता-पिता को उत्तमोत्तम वस्तुओं की भेंट देकर वे इन्द्रइन्द्रानी देवों सहित अपने स्वर्गलोक में चले गये।
भगवान को जन्म से ही मति-श्रुत-अवधिज्ञान और क्षायिक सम्यग्दर्शन था, उनका स्वभाव अति सौम्य ||
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