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| लगे। छलाँगें मारता हुआ वह सिंह वन में स्वच्छन्द विचरता था। वह सिंह दूसरा कोई नहीं किन्तु कमठ
|| का ही जीव था। ध्यानस्थ मुनिपर उसकी दृष्टि पड़ते ही उसने क्रोध से गर्जना की और मुनिराज की ओर ला | दौड़ा। मुनिराज किंचित मात्र भी भयभीत नहीं हुए, वे तो निर्भय रूप से अपने ध्यान में लीन थे। सिंह ने | छलांग मारकर उनका गला दबोच लिया और पंजों से शरीर को फाड़कर खाने लगा। वह नहीं जानता था कि मैं जिनके शरीर को खा रहा हूँ वे ही मेरे गुरु बनकर इस दुःखद संसार से मेरा उद्धार करेंगे।" मुनिराज! आनत स्वर्ग में इन्द्र हुए। सिंह भी क्रूर परिणामों से मरकर पुन: नरक में जा गिरा।
जब इन्द्र की आयु में छह मास शेष रहे और वाराणसी नगरी (काशी-बनारस) में पार्श्वनाथ की तीर्थंकररूप में अवतरित होने की तैयारी होने लगीं। तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ प्रभु के अवतरण का समय
आ चुका था। राजभवन के प्रांगण में प्रतिदिन आकाश से करोड़ों रत्नों की वर्षा होने लगी पन्द्रह मास तक वह रत्नवृष्टि होती रही।
उस समय वाराणसी में राजा अश्वसेन राज्य करते थे। वे अति गंभीर थे, सम्यग्दृष्टि थे। अवधिज्ञान के धारी तथा वीतराग देव-गुरु के परम भक्त थे। उनकी महारानी वामा देवी भी अनेक गुणसम्पन्न थीं। उन दोनों का आत्मा तो मिथ्यात्व मल से रहित था ही, किन्तु उनका शरीर भी मलमूत्र रहित था। ज्ञातव्य है कि तीर्थंकर को उनके माता-पिता, चक्रवर्ती को बलदेव-वासुदेव-प्रतिवासुदेव को तथा जुगलिया को मल मूत्र नहीं होते।
एक दिन महारानी वामादेवी पंचपरमेष्ठी भगवन्तों का स्मरण कर गहरी नींद में सो रही थी, वह निद्राधीन थीं, वैशाख कृष्णा द्वितीया का दिन था, तब उन्होंने रात्रि के पिछले प्रहर में १६ मंगल स्वप्न देखे जो भगवान पार्श्वनाथ के माता के गर्भ में आने के सूचक थे।
महाराजा अश्वसेन के स्वप्नों का फल जानकर माता का हृदय आनन्द से भर गया। प्रभात होते ही || राजसभा में जाकर माताजी का महाराज ने इन्द्रों तथा इन्द्रानियों ने आकर खूब सम्मान किया और || २२
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