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________________ २९२ श ला च 1 at a अब अ का पु वहाँ देव ही जाते हैं। जिसप्रकार आत्मा का शुद्ध स्वभाव शाश्वत अनादि का है, उसीप्रकार उसके प्रतिबिम्ब रूप में वे वीतराग जिन प्रतिमाएँ भी शाश्वत अनादि की हैं। वे भले अचेतन हों; किन्तु चैतन्यगुणों के स्मरण | का निमित्त है । वे मूक जिन प्रतिमाएँ ऐसा उपदेश देती हैं कि संकल्प-विकल्प छोड़कर तुम अपने स्वरूप में स्थिर हो जाओ। जिसप्रकार चिन्तामणि के चिन्तन द्वारा इच्छित वस्तु की प्राप्ति होती है, उसीप्रकार तुम जिस स्वरूप में प्रभु का ध्यान करोगे उसी स्वरूप तुम होंगे। अरे, जिसे जिनदेव के प्रति वह तो संसार समुद्र के बीच विषय कषायरूपी मगर के मुख में ही पड़ा है।" भक्ति नहीं है राजा आनन्द को संबोधित हुए मुनिराज ने कहा- "हे राजन्! अब आपके दो ही भव शेष हैं। इस भव में तीर्थंकर प्रकृति बाँधकर आगामी दूसरे भव में आप भरत क्षेत्र में २३ वें तीर्थंकर होंगे और सम्मेदशिखर से मोक्ष को प्राप्त करोगे ।" ती थं एक दिन राजा ने अपने सिर में एक श्वेत बाल देखा, और तुरन्त ही उनका हृदय वैराग्यरस से भर गया । र्द्ध 'अरे, यह श्वेत बाल मृत्यु का सन्देश लेकर आया है । इसलिये अब मुझे आत्मकल्याण में क्षणभर का भी विलम्ब नहीं करना चाहिए।' ऐसे दृढ़ निश्चयपूर्वक वे आनन्द महाराजा वैराग्य भावनाओं का चिन्तन करने लगे और सागरदत्त मुनि के समीप मुनिदीक्षा ग्रहण की। मुनि होकर शुद्धोपयोग द्वारा आत्मध्यान में एकाग्र हुए और अतीन्द्रिय आनन्द के सागर में निमग्न हो गये । अनेक ऋद्धियाँ भी उनके प्रकट हुईं, परन्तु उनका लक्ष्य तो चैतन्यऋद्धि पर ही था । आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान का तो उनके अभाव था, वे तो धर्मध्यान में एकाग्र रहते थे और कभी-कभी शुक्लध्यान भी ध्याते थे । क र पा वे मुनिराज बारम्बार शुद्धोपयोगरूपी जल द्वारा चारित्रवृक्ष का सिंचन करते थे। ऐसे मुनिराज ने दर्शन व | विशुद्धि से लेकर रत्नत्रयधर्म के प्रति परम वात्सल्य तक की सोलह भावनाओं द्वारा तीर्थंकर प्रकृति का | बंध किया। शिवपुर पहुँचने में अब मात्र एक ही भव बीच में शेष बचा था । ना थ पर्व मुनिराज एक बार वन में निष्कंप रूप से ध्यान मग्न थे कि इतने में गर्जना करता हुआ एक सिंह वहाँ आ पहुँचा। उसकी भीषण गर्जना से सारा वन काँप उठा, वन के पशु-पक्षी भयभीत होकर इधर-उधर भागने २२
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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