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॥ राजकुमार आनन्द स्वयं आत्मानन्द का अनुभव करते थे और दूसरों को भी आनन्द देते थे। बड़े होने | पर वे महामाण्डलिक राजा हुए, आठ हजार राजा उनके अधिकार में थे। इतने महान राजा होने पर भी वे | धर्म को नहीं भूले थे। वे धर्मात्माओं का सन्मान तथा विद्वानों का आदर करते थे। उनके शासन में अयोध्या की प्रजा सर्वप्रकार से सुखी थी।
फाल्गुन मास में बसन्त ऋतु आयी और उद्यान सुन्दर पुष्पों से खिल उठे। धर्मात्माओं के अंतर के उद्यान भी श्रद्धा-ज्ञान एवं आनन्द के पुष्पों से खिल उठे। आनन्द महाराजा राजसभा में बैठे थे और धर्मचर्चा द्वारा सबको आननन्दित कर रहे थे। इतने में मंत्री ने आकर कहा - "हे महाराज! कल से अष्टान्हिका पर्व प्रारम्भ | हो रहा है, इसलिये आठ दिन तक जिन मन्दिर में नन्दीश्वर-पूजा का आयोजन किया है, आप भी इस | उत्सव में पधारकर नन्दीश्वर-जिनालयों की पूजा करें।"
अष्टान्हिका पर्व का मंगल उत्सव चल रहा था, उन्हीं दिनों विपुलमति नाम के एक मुनिराज जिनमंदिर में आये। एक तो भगवान की पूजा का उत्सव और उसी में मुनिराज का आगमन । इससे सारे नगर में हर्ष छा गया। राजा एवं प्रजा सबने भक्तिभाव सहित मुनिराज के दर्शन किये।
विरागी मुनिराज ने कहा - "हे भव्यजीवो! यह आत्मा ही स्वयं ज्ञान एवं सुखरूप है, इसे पहिचानो! सम्पूर्ण जगत में घूम-फिर कर देखा, परन्तु आत्मा के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र सुख दिखायी नहीं दिया। आत्मा का सुख आत्मा में ही है, वह बाहर ढूँढ़ने से नहीं मिलेगा। आत्मा को जानने से ही आत्मसुख की प्राप्ति होती है। जिनशासन में अरहंत भगवान ने ऐसा कहा कि पूजा व्रतादि के शुभराग से पुण्यबंध होता | है और मोह रहित जो वीतरागभाव है वह धर्म है, उसके द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है।"
पुनश्च, मुनिराज ने कहा - "नन्दीश्वरद्वीप में बावन शाश्वत जिनालय हैं और उनमें ५६१६ वीतरागी जिनबिम्ब विराजमान हैं। वे जिनबिम्ब आत्मा के शुद्धस्वरूप के प्रतिबिम्ब हैं और आत्मा का शुद्धस्वरूप लक्ष्य में आने पर मोह का नाश होकर सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। उस नन्दीश्वर द्वीप में मनुष्य नहीं जा सकते, २२