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| जिनागम में जिनदर्शन को धर्म के मूल सम्यग्दर्शन का समर्थ निमित्त माना गया है, आत्मदर्शन का हेतु माना गया है; अतएव आचार्यों ने देवदर्शन को भी अष्ट मूलगुणों में सम्मिलित किया है।
जिनबिम्बदर्शन, सम्यग्दर्शन का निमित्त तो है ही, सातिशय पुण्यबन्ध का कारण भी है और अतिशय पुण्य का फल भी है। सातिशय पुण्योदय के बिना जिनेन्द्र देव के दर्शनों का लाभ उनकी भवोच्छेदक वाणी सुनने का सौभाग्य भी नहीं मिलता। || "हे प्रभु ! आज हमारा महान पुण्य का उदय आया है, जो हमें आपके दर्शनों का लाभ मिला। अबतक
आपको जाने बिना हमने अनंत दुःख प्राप्त किए और अपने को नहीं पहचान पाने से अपने गुणों की हानि की और आत्मगुण प्रगट नहीं कर पाये।
जिनेन्द्रदेव के मुखारबिन्द के दर्शन करने से आत्मा के स्वरूप में रुचि जाग्रत जाती है, अपने आत्मा की अनन्त सामर्थ्य स्वरूप सर्वज्ञ भगवान की प्रतीति आ जाती है, अपने व पराये की पहचान हो जाती है। सम्यग्ज्ञानरूपी सूर्य का उदय हो जाने से मोहरूप अंधयारी रात्रि का नाश हो जाता है।"
"जो पुरुष श्री जिनेन्द्रदेव के आकारवाला जिनबिम्ब बनवाकर स्थापित करता है, श्री जिनेन्द्रदेव की पूजा व स्तुति करता है उसके कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता।" जिनेन्द्र भगवान का भक्त लौकिक व लोकोत्तर सभी सुख प्राप्त करता है।
देवेन्द्रचक्र महिमानममेयमानं, राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्र शिरोऽर्चनीयं ।
धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं, लब्ध्वाशिवंचजिनभक्ति रूपैतिभव्यः ।। जिनेन्द्र भगवान का भक्त भव्य जीव अपार महिमा के धारक इन्द्रपद को, सब राजाओं से पूजित चक्रवर्ती पद को और तीन लोक से पूजित तीर्थंकर पद को प्राप्त करके सिद्धपद की प्राप्ति करता है।
जो जिनदेव के दर्शन नहीं करते, उसके गृहस्थाश्रम को धिक्कारते हुए आचार्य कहेंगे कि - १. रत्नकरण्डश्रावकाचार : आचार्य समन्तभद्र