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________________ MEFFFFFF Tv बनाकर उसमें जिनेन्द्रदेव की प्रतिष्ठा कर ली जाती है। प्रतिष्ठा होने के पश्चात् वह प्रतिमा भी साक्षात् जिनेन्द्रदेव के समान ही वन्दनीय-पूजनीय होती है; क्योंकि उस प्रतिमा के दर्शन से भी जिनेन्द्रदेव के दर्शन ला ||| के समान ही पूरा लाभ होता है। साक्षात् समोशरण (धर्मसभा) में विराजमान जिनेन्द्रदेव में एवं जिनमन्दिर में विराजमान उनकी प्रतिमा | में दर्शन करने से धर्मलाभ की अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि समोशरण में भी तो जिनदेव के शरीर | के ही दर्शन होते हैं। उनका आत्मा तो वहाँ भी दिखाई नहीं देता और हमारा दर्शन करने का प्रयोजन तो उनकी प्रतिमा के दर्शन से भी उसीतरह पूरा हो जाता है, जिसतरह जीवन्त जिनेन्द्र के दर्शन से होता है। अत: हमारे लिए तो जिनबिम्बदर्शन ही देवदर्शन है।" श्रोता का प्रश्न - "हे प्रभो ! जो वीतरागी होते हैं, वे न तो भक्तों का भला करते हैं और न दुष्टों को दण्ड ही देते हैं, तो उनके दर्शन-पूजन से हमें क्या लाभ ? जब उनके दर्शन-पूजन करने पर भी वे हमारे किसी लौकिक-पारलौकिक प्रयोजन की पूर्ति नहीं करते या नहीं कर सकते तो फिर बिना प्रयोजन कोई उनके नित्य दर्शन क्यों करें ?" दिव्यध्वनि में समाधान आया - "हे भव्य! जिनेन्द्रदेव का दर्शन-पूजन उनको प्रसन्न करने के लिए नहीं किए जाते, वरन् अपने चित्त की प्रसन्नता के लिए किए जाते हैं। वे तो वीतराग होने से तुष्ट या रुष्ट नहीं होते, पर उनके गुणस्मरण करने से हमारा मन अवश्य ही प्रसन्न एवं पवित्र हो जाता है।" यद्यपि जिनेन्द्र भगवान वीतराग हैं, अत: उनकी पूजा से भी उन्हें कोई प्रयोजन नहीं तथा बैर रहित हैं, अत: निन्दा से भी कोई प्रयोजन नहीं। तथापि उनके पवित्र गुणों का स्मरण पापियों के पापरूप मल से मलिन मन को निर्मल कर देता है। भले भगवान प्रसन्न होकर भक्तों से कुछ नहीं देते, पर उनकी भक्ति से भक्त का मन निर्मल हो जाता है। मन का निर्मल हो जाना व पापभावों से बचे रहना ही जिनभक्ति का सच्चा फल है। दर्शन-पूजन का यही असली प्रयोजन है।
SR No.008375
Book TitleSalaka Purush Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size1 MB
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